मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

इस्लाम, मुसलमान और मीडिया




मुसलमानों की यह पुरानी शिकायत है कि मीडिया का इस्लाम व मुसलमानों के प्रति
शत्रुतापूर्ण रूख है। विशेषकर, पश्चिमी मीडिया तो मुसलमानों के प्रति घोर पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया रखता
है और 9/11 के बाद से, मीडिया का रूख और पक्षपात पूर्ण हो गया है। ऐसा नहीं है कि 9/11
के पहले, मीडिया का मुसलमानों के प्रति दोस्ताना रवैया था। मीडिया के इस रवैये के पीछे जटिल
कारण हैं, जिन्हें समझने की कोशिश मुसलमानों को करनी चाहिए। मीडिया को लगातार कटघरे में
खड़ा करने, उसकी निंदा करने से कुछ हासिल नहीं होगा। निंदा करना आसान है, उसके कारणों
को समझना मुष्किल।
इस लेख में मैं मीडिया के इस रूख के कारणों की विवेचना करना चाहूंगा। किसी भी
समस्या का निदान तभी हो सकता है जब हम उसके कारण को समझें। सबसे पहले तो हमें यह
समझ लेना चाहिए कि मीडिया का बैर भाव राजनैतिक है न कि धार्मिक, यद्यपि सरसरी निगाह से
देखने पर ऐसा लग सकता है कि इसके मूल में धार्मिक कारक हैं। इस्लाम व इसाईयत दोनों
विश्वव्यापी धर्म हैं। इन दोनों धर्मों के राजा-बादशाह एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी थे व एक-दूसरे की
कीमत पर अपना-अपना साम्राज्य कायम करने की कोशिश में लगे रहे।
इस्लाम और इसाईयत में कोई प्रतिद्वंदिता नहीं थी परंतु इन धर्मों के शासकों में अवश्य
थी। इससे दोनों धर्मों के अनुयायियों के मन में पूर्वाग्रहों ने अपनी जड़ें जमा लीं। क्रूसेड्स पूरी
ताकत से लड़े गए और इसका भी आमजनों के मनोमस्तिष्क पर प्रभाव पड़ा। तुर्की, दुनिया के
सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक बनकर उभरा और उसका विस्तार मध्य यूरोप तक हो गया।
इससे यूरोप वासियों को लगे घाव के निशान अब भी बाकी हैं।
मध्य युग में मुस्लिम साम्राज्यों का बोलबाला रहा। पुनर्जागरण (रेनेसां) के बाद से दुनिया में
यूरोप का दबदबा बढ़ा। यूरोपीय देशों ने विज्ञान व तक्नालाॅजी के क्षेत्रों में आशातीत प्रगति की व वे
एशियाई व अफ्रीकी देशों में अपने उपनिवेश स्थापित करने लगे। इन देशों में उनका मुकाबला
मुसलमानों से हुआ। भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए, अंग्रेजों को मुगल बादशाह को
पराजित करना पड़ा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सत्ता संघर्ष ने यूरोप वासियों के मन में इस्लाम व
मुसलमानों के प्रति गहरे पूर्वाग्रह उत्पन्न किए। कई ईसाई शासको ने मिशनरियों के जरिए अपने
धर्म का प्रचार करवाया। जवाबी कार्यवाही में मुसलमान, षासकों ने अपने धर्मावलम्बियों के ईसाई
बनने पर कडाई से रोक लगाई और अपने धर्मप्रचारकों के जरिए, आदि वासियों को इस्लाम का
अनुयायी बनाने के लिए अभियान चलाए। इस सबसे ऐसा लगने लगा मानों बादशाहों के बीच
का यह संघर्ष राजनैतिक न होकर धार्मिक हो।
ये पूर्वाग्रह बने रहे और आज भी मीडिया के शत्रुतापूर्ण रवैये के रूप में प्रतिबिंबित हो रहे
हैं। प्रो. हटिंगटन की पुस्तक “क्लैष आॅफ सिविलाईजेषंस“, जिसकी पश्चिमी मीडिया ने जमकर
तारीफ की, भी इसी पूर्वाग्रह का नतीजा है। सोवियत संघ के पतन के बाद यह पुस्तक और
महत्वपूर्ण बन गई। अमरीका एक “बाहरी षत्रु“ की तलाश में था और पश्चिमी देशों का पुराना
प्रतिद्वंदी इस्लाम इसके लिए एकदम उपयुक्त साबित हुआ।
दोनों विश्वयुद्धों में हुई भीषण बर्बादी के बाद दुनिया में कुछ समय तक शान्ति बनी रही।
इन युद्धों में मुख्यतः ईसाई शक्तियां ही शामिल थीं और ये युद्ध धार्मिक प्रभुता नहीं बल्कि
राजनैतिक प्रभुता स्थापित करने के लिए लड़े गए। युद्धों के बाद नष्ट हो चुके देशों का पुनर्निर्माण
शुरू हुआ, संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया और धर्म व धार्मिक प्रतिद्वंदिता का स्थान
मानवाधिकारों व मानवीय गरिमा की अवधारणाओं ने ले लिया।
द्वितीय विश्व युद्ध से एक नई समस्या उभरी और वह थी इजराईल की। इजराईल का
निर्माण फिलिस्तीन की धरती पर हुआ। जो क्रूसेड्स से हासिल नहीं किया जा सका उसे इजराईल
के जरिए पाने की कोशिश हुई। इजराईल का निर्माण उन करोड़ों यहूदियों की जानों के मुआवज़े
बतौर नहीं हुआ, जिन्हें नाजियों ने मौत के घाट उतार दिया था। इसका असली उद्देश्य था
इस्लामिक दुनिया पर प्रभुत्व जमाना। निर्दोष यहूदियों की क्रूर हत्या के लिए अरब देश कतई
जिम्मेदार नहीं थे। फिर भी, इसकी कीमत अरब देशों व विशेषकर फिलिस्तीन को चुकानी पड़ी।
यहूदीवाद दुनिया की सबसे आक्रामक दक्षिणपंथी राजनैतिक विचारधारा के रूप में उभरा।
उसे पश्चिमी राष्ट्रों, विशेषकर अमरीका का भरपूर सहयोग व समर्थन मिला। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
इंग्लैंड की जगह अमरीका दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में सामने आया। अमरीका ने
इजराईल को पूरा समर्थन दिया और आज तक देता आ रहा है। इजराईल ने अमरीकी नीतियों को
अपने दक्षिणपंथी राजनैतिक चरित्र के अनुरूप पाया और दोनों देशों की घनिष्ठता बढ़ती गई।
यही वे तत्व हैं जो अमरीका के प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के नियंता हैं और इस्लाम व
मुसलमानों को बदनाम करने में उन्हें अपना हित नज़र आता है। उनकी एकता, ईसाईयों व
यहूदियों की एकता नहीं बल्कि दक्षिणपंथी राजनैतिक ताक़तों की एकता है। इसी तरह, फिलिस्तीन
में ईसाई अरब व मुसलमान अरब एक हैं क्योंकि दोनों ही यहूदीवादी आक्रामकता के शिकार हैं।
इस तरह, यह स्पष्ट है कि मुसलमानों व इस्लाम पर हमला, यहूदियों या ईसाईयों ने नहीं बल्कि
दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतों ने बोला है।
यह दिलचस्प है कि अधिकांश पश्चिमी देश धर्मनिरपेक्ष हैं व धर्मनिरपेक्ष-राष्ट्रवाद में आस्था
रखते हैं। इसके बावजूद वे इजराईल जैसे धर्म-आधारित देष के अंधसमर्थक हैं- एक ऐसे देष के
जहाँ सभी गैर-यहूदी, चाहे वे ईसाई हों या मुसलमान, दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। इजराईल में
मुसलमान व ईसाई अरबों को वे नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो कि यहूदियों को हैं। परंतु चूंकि
वह उनका हित-साधन करता है इसलिए पश्चिमी देशों को धार्मिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर गठित
इज़राईल से संयुक्त गठबंधन बनाने में कोई गुरेज नहीं है। धर्म-आधारित किसी भी अन्य राष्ट्र को
पश्चिमी देश तुरंत प्रतिक्रियावादीबर्बर करार देते हैं।

इस्लाम व मुसलमानों के प्रति इस पुराने वैमनस्य को 9/11 की घटना ने जमकर हवा दी। अब इस्लाम व मुसलमानों के खिलाफ घोषित तौर पर युद्ध होने लगे। पश्चिमी मीडिया ने भी
मुसलमानों के मुँह पर कालिख पोत ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुसलमानों को इस मामले में गहन
चिंतन करने की जरूरत है। उन्हें यह समझना चाहिए कि आतंकी हमले करने से कुछ हासिल नहीं
होता। उलटे, इससे इस्लाम बदनाम होता है। ओसामा बिन लादेन और उसके मुट्ठीभर अल्कायदा
अनुयायियों ने इस्लाम के नाम पर बट्टा लगा दिया है। पश्चिमी मीडिया के अनवरत दुष्प्रचार के
चलते आज सारी दुनिया यह मानने लगी है कि इस्लाम, हिंसा का धर्म है। अल्कायदा को कभी
आम मुसलमानों का समर्थन नहीं मिला। उसका साथ दिया मुसलमानों के एक आक्रामक तबके ने।
पी.ई.डब्ल्यू. सहित अनेक एजेंसियों द्वारा कराए गए सर्वेक्षणों से यह सामने आया है कि अल्जीरिया
से लेकर इंडोनेशिया तक-मुसलमानों का एक बहुत छोटा सा तबका 9/11 जैसे हमलों का
समर्थक है। परंतु पश्चिमी मीडिया ने कभी इस तरह की खबरों को महत्व नहीं दिया। हाँ, हर
आतंकी हमला, मुख पृष्ठ की सुर्खियों में स्थान पाता रहा।
मुसलमानों को न सिर्फ शान्ति में आस्था रखने वाला समुदाय बनना चाहिए वरन् उन्हें
शाँतिपूर्ण समुदाय दिखना और लगना भी चाहिए। तभी पश्चिमी मीडिया को मजबूर किया जा
सकेगा कि वह मुसलमानों के बारे में सकारात्मक खबरों को भी तवज्जो दे। अगर ऐसा नहीं किया
गया तो चंद मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा को पूरे समुदाय की कारगुज़ारी बताने का सिलसिला
जारी रहेगा। इस्लाम और मुसलमानों की मीडिया में खराब छवि के पीछे अन्य कारण भी हैं। हम
मुसलमानों को इस विषय में गंभीर चिंतन करना होगा और हमारे समाज में परिवर्तन लाने होंगे।
पश्चिमी मीडिया यह देखता है कि अधिकांश इस्लामिक देशों में नागरिक स्वतंत्रताओं का
अभाव है व तानाशाही शासन है। गहराई में जाए बिना वे यह मान लेते हैं कि इस्लाम, प्रजातंत्र का
हामी नहीं है और कुलीन वर्गों के शासन को प्रोत्साहन देता है। कई दक्षिणपंथी मुस्लिम युवक,
तुर्की में खलीफा के राज्यारोहण को सभी समस्याओं का हल बताते हैं और मीडिया उनकी इस बात
का बतंगड़ बना देता है।
अगरचे कभी इस्लाम या पैगंबर के प्रति अपमानजनक कोई लेख, कार्टून या चित्र किसी
पश्चिमी अखबार या पत्रिका में प्रकाशित होता है तो तुरत हिंसक प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं।
यहाँ तक कि संबंधित लेखक या कार्टूनिस्ट का सर कलम करने की बात उठने लगती है और
इससे पश्चिमी मीडिया इस निष्कर्ष पर पहॅुचता है कि इस्लामिक संस्कृति में सहिष्णुता व अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं है और वह पश्चिमी संस्कृति से एकदम भिन्न है।
वे यह भूल जाते हैं कि कुछ दशकों पहले तक पश्चिमी समाज भी ऐसा ही था। मुस्लिम
समाज आज भी आधुनिक नहीं बन सका है और उसकी सोच सामंती है। पत्रकारों की नई
पीढ़ी एकदम अलग संस्कृति व वातावरण में पली बढ़ी है और उस पर दक्षिणपंथी प्रचार का असर
भी है। आश्चर्य नहीं की वह इस्लामिक देशों में हो रही घटनाओं को मानवाधिकारों के गंभीर हनन
के रूप में देखती है और उसके खिलाफ कड़े शब्दों में लिखती है। ये पत्रकार मानते हैं कि केवल
पश्चिमी संस्कृति ही स्वतंत्रता व प्रजातंत्र की गारंटी है और इस्लामिक समाज अत्यन्त असहिष्णु
तानाशाहीपूर्ण है।
पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी मीडिया के व्यवसायी करण के युग में जी रही है और वह पिछली
पीढ़ी के विपरीत मुद्दों की गहराई में जाने में विश्वास नहीं रखती। वह सतही प्रमाणों के आधार पर
तुरंत किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाती है। आज के पत्रकारों को सच की परवाह नहीं है। उनकी रूचि

केवल मोटा वेतन पाने में है। जाहिर है कि सत्यान्वेषण की कमी से पत्रकार गलत निष्कर्ष पर
पहुँचता है।
इससे भी दुःखद यह है कि पश्चिमी अखबारों में जो कुछ लिखा जाता है उसे तीसरी
दुनिया के देशों का मीडिया धु्रवसत्य मानकर जैसा का तैसा छाप देता है। इससे पश्चिमी मीडिया
का मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया एक विश्वव्यापी समस्या बन गया है। भारत इस मामले में
अपवाद नहीं है। यद्यपि भारतीय मीडिया स्वतंत्र व निष्पक्ष है तथापि वह भी पश्चिमी मीडिया के
निष्कर्षाें को बिना जाँच पड़ताल के निगल लेता है। इसके अतिरिक्त, भारत में अनेक दक्षिणपंथी
दल और विचारधाराएँ हैं जिनके प्रचार का असर भाषायी मीडिया और कुछ हद तक अंग्रेजी मीडिया
पर दिखलायी पड़ता है।
मीडिया प्रजातांत्रिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। मीडिया जनमत का निर्माता है
परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी भी मुद्दे की समुचित विवेचना करने के स्थान पर वह पूर्वाग्रहों
को स्वीकार कर लेता है, यथास्थिति को बढ़ावा देता है और बहुसंख्यकवादी विचारों को प्रोत्साहन
देता है। इस्लामिक देशों के मीडिया का भी यही हाल है। वह भी बहुसंख्यकों के विचारों को
प्राथमिकता देता है, अल्पसंख्यक-विरोधी है और दक्षिणपंथी विचारधारा का पोशक है। चंद अपवादों
को छोड़कर मुस्लिम देशों का मीडिया स्वतंत्र नहीं है।
कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि पश्चिम, तीसरी दुनिया और इस्लामिक देश-तीनों
का ही मीडिया स्वतंत्र, निष्पक्ष व पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है।
-डा. असगर अली इंजीनियर

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