किन्तु नक्सलवाद के प्रभावों का आकलन देश के कुल गाँवों की संख्या के आधार पर किया जाएगा तो उसका प्रभाव महज दो-तीन प्रतिशत गाँवों तक ही दिखेगा। किसी समस्या का प्रचार-प्रसार या यूँ कहें कि प्रचार की भाषा अपनी योजनाओं व रणनीतियों के अनुसार ही तय किया जाता है। सरकार यहाँ भी आँकड़ों की बाजीगिरी दिखा देश के लोगों को ठगने का काम करती है। देश के लोगों के सामने जब इस तरह की तस्वीर पेश की जाएगी कि करीब 80 प्रतिशत से ज्यादा इलाकों में नक्सलवाद पसर चुका है तो उसका संदेशभी अलग जाएगा। सरकार चाहे एन.डी.ए. की हो या यू.पी.ए. दोनों जिस तरह से नक्सलवाद के प्रभाव के विस्तार का वर्णन करती हंैे इसके पीछे उनके इरादे कुछ और होते हैं। इसलिए वह इसे समस्या के रूप में प्रचारित करती रही है, आंदोलन के रूप में नहीं। समस्या बताते हुए इसके समाधान और इसे कुचलने के लिए हथियारों का प्रयोग भी जमकर होता है। इसके नाम पर करोड़ों रुपये लूटने के साथ हजारों बेगुनाह लोग गोली का शकार भी बनते हैं। रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद समस्या को आंदोलन कहा जा सकता है लेकिन नक्सलवाद को आंदोलन का नाम देने में राजनैतिक परेशनी खड़ी हो जाती है। सरकार का यह दोहरा चरित्र-व्यवहार देश के लिए घातक हो सकता है।
देश कीे अधिसंख्य कृषि योग्य भूमि को एस.इ.जेड. यानी औद्योगिक क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार किसानों को मुआवजे के नाम पर केवल खानापूर्ति कर रही है। जिन इलाकों में नई नीतियों के तहत नए उद्योग विकसित किए जा रहे हैं वहाँ से भुखमरी और आत्महत्या की खबरें सर्वाधिक आ रही हैं। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जो देश के विकसित राज्यों की श्रेणी में आते हैं वहाँ सेे किसानों के आत्महत्या के मामले ज्यादातर आते हैं। एक आँकड़े के अनुसार केवल महाराष्ट्र में पिछले 20 वर्षों में 10000 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। पिछले 10 वर्षों में झारखंड, छतीसगढ़ और ओडि़सा नक्सलवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं क्योंकि वहाँ की सरकार की नीतियाँ किसानों के विरुद्ध रही हैं। केवल झारखंड को ही लें तो पिछले 11 वर्षों में यहाँ के शासक चाहे वे एन.डी.ए. हो या यू.पी.ए., ने यहाँ की खनिज संपदा को निर्दयता पूर्वक लूटने और दोहन करने का ही काम किया है। वहाँ की 70 फीसद आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन यह जान बेहद आष्चर्य होगा कि अविभाजित बिहार से लेकर अलग राज्य बनने के बाद से लेकर आज तक कोई कृषि नीति नहीं बनाई गई। नतीजा है कि झारखंड के कुल क्षेत्रफल की मात्र 25 फीसदी जमीन ही कृषि योग्य है और इसमें से सिर्फ 8 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है। गरीबी, बेरोजगारी, भूख और लगातार उत्पीड़न और अवहेलना से नाराज झारखंडी युवा आसानी से माओवादी बन रहे हैं। राज्य मषीनरी व लोकतंत्र की विफलता और भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों, ठेकेदारों और पूँजीपतियों की करतूतों ने पूरे सूबे में माओवादियों के प्रभाव बढ़ाने में खाद-पानी का काम किया। यह कहना तो सरासर गलत है कि झारखंड के आदिवासियों-गरीबों ने राजव्यवस्था के खिलाफ हथियार उठा लिया है लेकिन यह भी एक स्याह सच है कि स्टेट पावर तेजी से उन गरीबों का विष्वास खोती जा रही है और यह स्थिति करीब सभी नक्सल प्रभावित राज्यों की है।
हालाँकि इस तरह के आंदोलनों का अंत कहाँ होगा और उनको न्याय कैसे मिलेगा? इस पर भी माओवादियों के नेताओं की राय में काफी भिन्नता है? पूर्व माओवादी नेता और पलामू, झारखंड से लोकसभा सांसद कामेष्वर बैठा कहते हैं कि ‘‘मैं खुद पिछले 29 वर्षों से परचे-पोस्टर चिपकाता रहा, चुनाव का बहिष्कार करता रहा लेकिन उसका कोई फायदा न तो पहले मिला था और न अब। बहिष्कार या विरोध का यह नारा सिर्फ कागजों पर, दीवारों पर और पोस्टरों तक सिमट कर रह जाता है।’’ बकौल कामेष्वर बैठा भारतीय लोकतंत्र में सशस्त्र संघर्ष की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत की स्थिति रूस, चीन और नेपाल से भिन्न है। यहाँ लोकतांत्रिक तरीके से ही अपनी बातों को रखा जा सकता है, चर्चाएँ हो सकती हैं। लेकिन वहीं पूर्व एम.सी.सी. जोनल कमांडर रामाधार सिंह जो विधायक भी रहे हैं फिलहाल राजनैतिक बंदी रिहाई समिति के बिहार संयोजक हैं इसका जोरदार खंडन करते हुए कहते हैं ‘‘जिसे माओवाद के सिद्धांत की अच्छी जानकारी होगी वह विधानसभा या लोकसभा में टिक ही नहीं सकेगा।’’ बकौल रामाधार सिंह आज एक किस्म का भ्रम फैलाया जा रहा है कि बिहार-झारखंड में माओवादी तेजी से लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने के लिए बेचैन दिख रहे हैं। पंचायतों से लेकर संसदीय चुनावों में अपना भाग्य आजमा कर सत्ता में साझीदार बन रहे हैं। लेकिन यह बात सच नहीं है, दो-चार लोगों के आधार पर यह बात नहीं कही जा सकती। विधायक बनकर मैंने यह सारा नाटक देख लिया है। यह चुनाव विधायी व्यवस्था, संवाद ड्रामा है, बदलाव हथियारों के बल पर ही होगा, बशर्ते हथियार जनता उठाए, माओवादी सिर्फ नेतृत्व करंे।
हालाँकि बिहार में माओवादियों की सोच में कुछ परिवर्तन होता दिख रहा है। यह सिर्फ सरकारी घोषणा नहीं बल्कि कई जिलों में पिछले सात वर्षों में नक्सली हमलों या नक्सल प्रभावित जिलों की सामाजिक शांति और ताने-बाने को देख कर कहा जा रहा है। 2010 के विधानसभा चुनाव और 2011 के पंचायत चुनावों में यहाँ की सरकार ने माओवादियों को उनके समक्ष अपनी बातें रखने और मुख्यधारा में शामिल होने के कई अवसर उपलब्ध कराए। चूँकि पिछले कुछ चुनावों में अपने बहिष्कारों का हश्र भी देख चुके हैं यहाँ के माओवादी। हालाँकि इस स्तर पर बिहार सरकार अन्य सरकारों से बेहतर काम करती नजर आ रही है। 2004 में पी.डब्लू.जी. और एम.सी.सी. के एकीकरण और विलय से इनकी मजबूती दायरे के विस्तार को लेकर तो दिखती है लेकिन संगठन के अंदरूनी हालात ठीक नहीं हैं। स्थानीय नियंत्रण और प्रषासन पर पकड़ इनकी लगातार कमजोर होती जा रही है। कई ऐसी घटनाएँ हुईं जब केंद्रीय नेतृत्व ने घटनाओं का ठीकरा लोकल कमेटी के मत्थे मढ़ दिया। लुकस टेटे और फ्रांसिस इंदवार की हत्या में यही हुआ था, इससे साफ पता चलता है कि तमाम एकीकरण के बावजूद माओवादियों के केंद्रीय और स्थानीय नेतृत्व में तारतम्यता स्थापित नहीं हो पा रही है। शायद इसलिए पिछले कुछ वर्षों में देश के कई हिस्सों में माओवादियों का क्षेत्र विस्तार तो जरूर हुआ लेकिन उनका प्रभाव कम होता जा रहा है। वजहें चाहे जो भी रही हों लेकिन उनके सिद्धांतों को मानने वालों, उनके कदम से कदम मिलाकर चलने वालों की बहुसंख्य आबादी माओवादियों के हिंसात्मक कार्यों या सषस्त्र बल प्रयोग को अब उचित नहीं मानती, माओवादी नेता चाहे जो कहंे लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनके समर्थकों की आस्था बढ़ी है। अब वे भी बेवजह हिंसा, मारकाट पसंद नहीं कर रहे हैं।
इन सबके बीच सबसे अहम सवाल यह पैदा होता है कि भारत जैसे विविधता वाले विषाल देश में नक्सलवाद और माओवाद का सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समाधान है या नहीं या फिर संघर्ष ही अंतिम विकल्प है। आँकड़े या दावे चाहे जो किए जाएँ लेकिन यह एक कटु सत्य है कि माओवाद का खात्मा सैनिक कार्रवाई से तो बिल्कुल ही संभव नहीं है। सैन्य या पुलिसिया कार्रवाई से कुछ भी सधनेवाला नहीं है। हिंसा-प्रतिहिंसा सनक्सलवाद का समाधान तो हो ही नहीं सकता यह बात कई शीर्ष स्तर के अधिकारी भी स्वीकार करते हैं और शायद इसीलिए बिहार के कई नक्सल प्रभावित जिलों में स्थानीय पुलिस पब्लिक-पुलिस मैत्री कार्यक्रम और कम्युनिटी पुलिसिंग कार्यक्रमों को चला रही है। जिसका कुछ सकारात्मक नतीजा भी दिख रहा है। लेकिन यह प्रयास ऊँट के मुँह में जीरा के समान है। नक्सली समस्या के समाधान के लिए इसे एक आर्थिक-सामाजिक प्रष्न समझ इससे निबटने और हल निकालने का प्रयास होगा तभी इस देश में इसे और पनपने से रोका जा सकता है। यदि छतीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकार संपोषित ‘‘सलवा जुडूम’’ कार्यक्रमों को संरक्षण दिया जाता रहेगा तो माओवाद को कैसे रोका जा सकता है। सलवा जुडूम अर्थात शांति मार्च। 21वीं सदी के वर्तमान इतिहास की कई मामलों में यह सबसे बड़ी त्रासदी है, विषेषकर माओवादियों के लिए। यह संभवतः पहली बार हुआ है कि सरकारी तौर पर जनता की कील जनता की छाती में ठोकी जा रही है। यह इस देष तोे क्या विष्व में कभी नहीं हुआ कि जनता-पुलिस एकसाथ मिलकर शांति मार्च निकाले और अपने कारवाँ में शरीक करने या उसे हिस्सा बनाने के लिए सरकारी दबिशका प्रयोग करके गाँव के गाँव खाली कराए जाएँ। मजबूर होकर हजारों आदिवासी मिलकर नक्सलवादियों के मुकाबले फिदायीन दस्ते में तबदील हो जाएँ, समस्या सुलझने की बजाए और बिगड़ती चली जाए। छतीसगढ़ में यही पिछले वर्षों में हो रहा है। जहाँ सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद नक्सली अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं और आए दिन वहाँ बेगुनाह फौजी चाहे वे सी.आर.पी.एफ. के हों या सी.आइ.एस.एफ. के जवान मारे जाते हैं। मानवीय पहलू को देखते हुए सरकार को इस पर ठोस निर्णय लेना चाहिए. जिसमें नक्सलियों से वार्ता या बातचीत के जरिए उनकी समस्याओं-माँगों का निराकरण होना चाहिए।
जब तक छतीसगढ़ के अबूझमाड़ जैसी पहेली उलझी रहेगी तब तक इस देष से माओवाद का सफाया नहीं हो सकता। केवल दिल्ली-मुंबई का विकास करने से पूरे देश का विकास नहीं हो सकता। देश के संसाधनों पर उनका उतना ही हक है जो दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज हैं और जो एक वक्त के नाष्ते के लिए लाखों खर्च कर रहे हैं। आर्थिक असमानता को दूर करके ही माओवाद का सफाया संभव है। बाकी सभी प्रयास तभी सफल होंगे जब नक्सलियों को अन्य लोगों की तरह जीने-खाने-कमाने का अवसर वास्तविक धरातल पर मिल सके। केवल कागजों पर नहीं। जितना जल्दी हो सके सामाजिक समरसता बहाल हो। नक्सलियों को उनके मानवीय अधिकार मिल सकंे तो नक्सलवाद को पनपने या और बढ़ने से काफी हद तक रोका जा सकता है। असमानता और अन्याय को कम करके ही माओवाद का खात्मा संभव है।
माओवाद को एक समस्या नहीं बल्कि एक मुक्त विचार मान कर ही इस गंभीर समस्या का निदान संभव है। जहाँ सभी पक्षों के लोग इसे सहानुभूति नहीं बल्कि इसे आवष्यक आवष्यकता मानें और एकमत से समाज के दलित, पिछड़ों और दशकों से हाषिए पर खड़े लोगों के जीवन का प्रष्न मानंे और उसी प्रकार निर्णय लंे तभी कुछ संभव है अन्यथा सरकार चाहे जितना गोली-बंदूक का भय दिखाए या हिंसा की बात करे नक्सलियों का कुछ खास नहीं कर पाई है और न निकट भविष्य में कुछ कर पाने की स्थिति में हैं।
- राणा अवधूत कुमार
मो0-09708077877
देश कीे अधिसंख्य कृषि योग्य भूमि को एस.इ.जेड. यानी औद्योगिक क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार किसानों को मुआवजे के नाम पर केवल खानापूर्ति कर रही है। जिन इलाकों में नई नीतियों के तहत नए उद्योग विकसित किए जा रहे हैं वहाँ से भुखमरी और आत्महत्या की खबरें सर्वाधिक आ रही हैं। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जो देश के विकसित राज्यों की श्रेणी में आते हैं वहाँ सेे किसानों के आत्महत्या के मामले ज्यादातर आते हैं। एक आँकड़े के अनुसार केवल महाराष्ट्र में पिछले 20 वर्षों में 10000 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। पिछले 10 वर्षों में झारखंड, छतीसगढ़ और ओडि़सा नक्सलवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं क्योंकि वहाँ की सरकार की नीतियाँ किसानों के विरुद्ध रही हैं। केवल झारखंड को ही लें तो पिछले 11 वर्षों में यहाँ के शासक चाहे वे एन.डी.ए. हो या यू.पी.ए., ने यहाँ की खनिज संपदा को निर्दयता पूर्वक लूटने और दोहन करने का ही काम किया है। वहाँ की 70 फीसद आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन यह जान बेहद आष्चर्य होगा कि अविभाजित बिहार से लेकर अलग राज्य बनने के बाद से लेकर आज तक कोई कृषि नीति नहीं बनाई गई। नतीजा है कि झारखंड के कुल क्षेत्रफल की मात्र 25 फीसदी जमीन ही कृषि योग्य है और इसमें से सिर्फ 8 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है। गरीबी, बेरोजगारी, भूख और लगातार उत्पीड़न और अवहेलना से नाराज झारखंडी युवा आसानी से माओवादी बन रहे हैं। राज्य मषीनरी व लोकतंत्र की विफलता और भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों, ठेकेदारों और पूँजीपतियों की करतूतों ने पूरे सूबे में माओवादियों के प्रभाव बढ़ाने में खाद-पानी का काम किया। यह कहना तो सरासर गलत है कि झारखंड के आदिवासियों-गरीबों ने राजव्यवस्था के खिलाफ हथियार उठा लिया है लेकिन यह भी एक स्याह सच है कि स्टेट पावर तेजी से उन गरीबों का विष्वास खोती जा रही है और यह स्थिति करीब सभी नक्सल प्रभावित राज्यों की है।
हालाँकि इस तरह के आंदोलनों का अंत कहाँ होगा और उनको न्याय कैसे मिलेगा? इस पर भी माओवादियों के नेताओं की राय में काफी भिन्नता है? पूर्व माओवादी नेता और पलामू, झारखंड से लोकसभा सांसद कामेष्वर बैठा कहते हैं कि ‘‘मैं खुद पिछले 29 वर्षों से परचे-पोस्टर चिपकाता रहा, चुनाव का बहिष्कार करता रहा लेकिन उसका कोई फायदा न तो पहले मिला था और न अब। बहिष्कार या विरोध का यह नारा सिर्फ कागजों पर, दीवारों पर और पोस्टरों तक सिमट कर रह जाता है।’’ बकौल कामेष्वर बैठा भारतीय लोकतंत्र में सशस्त्र संघर्ष की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत की स्थिति रूस, चीन और नेपाल से भिन्न है। यहाँ लोकतांत्रिक तरीके से ही अपनी बातों को रखा जा सकता है, चर्चाएँ हो सकती हैं। लेकिन वहीं पूर्व एम.सी.सी. जोनल कमांडर रामाधार सिंह जो विधायक भी रहे हैं फिलहाल राजनैतिक बंदी रिहाई समिति के बिहार संयोजक हैं इसका जोरदार खंडन करते हुए कहते हैं ‘‘जिसे माओवाद के सिद्धांत की अच्छी जानकारी होगी वह विधानसभा या लोकसभा में टिक ही नहीं सकेगा।’’ बकौल रामाधार सिंह आज एक किस्म का भ्रम फैलाया जा रहा है कि बिहार-झारखंड में माओवादी तेजी से लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने के लिए बेचैन दिख रहे हैं। पंचायतों से लेकर संसदीय चुनावों में अपना भाग्य आजमा कर सत्ता में साझीदार बन रहे हैं। लेकिन यह बात सच नहीं है, दो-चार लोगों के आधार पर यह बात नहीं कही जा सकती। विधायक बनकर मैंने यह सारा नाटक देख लिया है। यह चुनाव विधायी व्यवस्था, संवाद ड्रामा है, बदलाव हथियारों के बल पर ही होगा, बशर्ते हथियार जनता उठाए, माओवादी सिर्फ नेतृत्व करंे।
हालाँकि बिहार में माओवादियों की सोच में कुछ परिवर्तन होता दिख रहा है। यह सिर्फ सरकारी घोषणा नहीं बल्कि कई जिलों में पिछले सात वर्षों में नक्सली हमलों या नक्सल प्रभावित जिलों की सामाजिक शांति और ताने-बाने को देख कर कहा जा रहा है। 2010 के विधानसभा चुनाव और 2011 के पंचायत चुनावों में यहाँ की सरकार ने माओवादियों को उनके समक्ष अपनी बातें रखने और मुख्यधारा में शामिल होने के कई अवसर उपलब्ध कराए। चूँकि पिछले कुछ चुनावों में अपने बहिष्कारों का हश्र भी देख चुके हैं यहाँ के माओवादी। हालाँकि इस स्तर पर बिहार सरकार अन्य सरकारों से बेहतर काम करती नजर आ रही है। 2004 में पी.डब्लू.जी. और एम.सी.सी. के एकीकरण और विलय से इनकी मजबूती दायरे के विस्तार को लेकर तो दिखती है लेकिन संगठन के अंदरूनी हालात ठीक नहीं हैं। स्थानीय नियंत्रण और प्रषासन पर पकड़ इनकी लगातार कमजोर होती जा रही है। कई ऐसी घटनाएँ हुईं जब केंद्रीय नेतृत्व ने घटनाओं का ठीकरा लोकल कमेटी के मत्थे मढ़ दिया। लुकस टेटे और फ्रांसिस इंदवार की हत्या में यही हुआ था, इससे साफ पता चलता है कि तमाम एकीकरण के बावजूद माओवादियों के केंद्रीय और स्थानीय नेतृत्व में तारतम्यता स्थापित नहीं हो पा रही है। शायद इसलिए पिछले कुछ वर्षों में देश के कई हिस्सों में माओवादियों का क्षेत्र विस्तार तो जरूर हुआ लेकिन उनका प्रभाव कम होता जा रहा है। वजहें चाहे जो भी रही हों लेकिन उनके सिद्धांतों को मानने वालों, उनके कदम से कदम मिलाकर चलने वालों की बहुसंख्य आबादी माओवादियों के हिंसात्मक कार्यों या सषस्त्र बल प्रयोग को अब उचित नहीं मानती, माओवादी नेता चाहे जो कहंे लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनके समर्थकों की आस्था बढ़ी है। अब वे भी बेवजह हिंसा, मारकाट पसंद नहीं कर रहे हैं।
इन सबके बीच सबसे अहम सवाल यह पैदा होता है कि भारत जैसे विविधता वाले विषाल देश में नक्सलवाद और माओवाद का सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समाधान है या नहीं या फिर संघर्ष ही अंतिम विकल्प है। आँकड़े या दावे चाहे जो किए जाएँ लेकिन यह एक कटु सत्य है कि माओवाद का खात्मा सैनिक कार्रवाई से तो बिल्कुल ही संभव नहीं है। सैन्य या पुलिसिया कार्रवाई से कुछ भी सधनेवाला नहीं है। हिंसा-प्रतिहिंसा सनक्सलवाद का समाधान तो हो ही नहीं सकता यह बात कई शीर्ष स्तर के अधिकारी भी स्वीकार करते हैं और शायद इसीलिए बिहार के कई नक्सल प्रभावित जिलों में स्थानीय पुलिस पब्लिक-पुलिस मैत्री कार्यक्रम और कम्युनिटी पुलिसिंग कार्यक्रमों को चला रही है। जिसका कुछ सकारात्मक नतीजा भी दिख रहा है। लेकिन यह प्रयास ऊँट के मुँह में जीरा के समान है। नक्सली समस्या के समाधान के लिए इसे एक आर्थिक-सामाजिक प्रष्न समझ इससे निबटने और हल निकालने का प्रयास होगा तभी इस देश में इसे और पनपने से रोका जा सकता है। यदि छतीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकार संपोषित ‘‘सलवा जुडूम’’ कार्यक्रमों को संरक्षण दिया जाता रहेगा तो माओवाद को कैसे रोका जा सकता है। सलवा जुडूम अर्थात शांति मार्च। 21वीं सदी के वर्तमान इतिहास की कई मामलों में यह सबसे बड़ी त्रासदी है, विषेषकर माओवादियों के लिए। यह संभवतः पहली बार हुआ है कि सरकारी तौर पर जनता की कील जनता की छाती में ठोकी जा रही है। यह इस देष तोे क्या विष्व में कभी नहीं हुआ कि जनता-पुलिस एकसाथ मिलकर शांति मार्च निकाले और अपने कारवाँ में शरीक करने या उसे हिस्सा बनाने के लिए सरकारी दबिशका प्रयोग करके गाँव के गाँव खाली कराए जाएँ। मजबूर होकर हजारों आदिवासी मिलकर नक्सलवादियों के मुकाबले फिदायीन दस्ते में तबदील हो जाएँ, समस्या सुलझने की बजाए और बिगड़ती चली जाए। छतीसगढ़ में यही पिछले वर्षों में हो रहा है। जहाँ सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद नक्सली अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं और आए दिन वहाँ बेगुनाह फौजी चाहे वे सी.आर.पी.एफ. के हों या सी.आइ.एस.एफ. के जवान मारे जाते हैं। मानवीय पहलू को देखते हुए सरकार को इस पर ठोस निर्णय लेना चाहिए. जिसमें नक्सलियों से वार्ता या बातचीत के जरिए उनकी समस्याओं-माँगों का निराकरण होना चाहिए।
जब तक छतीसगढ़ के अबूझमाड़ जैसी पहेली उलझी रहेगी तब तक इस देष से माओवाद का सफाया नहीं हो सकता। केवल दिल्ली-मुंबई का विकास करने से पूरे देश का विकास नहीं हो सकता। देश के संसाधनों पर उनका उतना ही हक है जो दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज हैं और जो एक वक्त के नाष्ते के लिए लाखों खर्च कर रहे हैं। आर्थिक असमानता को दूर करके ही माओवाद का सफाया संभव है। बाकी सभी प्रयास तभी सफल होंगे जब नक्सलियों को अन्य लोगों की तरह जीने-खाने-कमाने का अवसर वास्तविक धरातल पर मिल सके। केवल कागजों पर नहीं। जितना जल्दी हो सके सामाजिक समरसता बहाल हो। नक्सलियों को उनके मानवीय अधिकार मिल सकंे तो नक्सलवाद को पनपने या और बढ़ने से काफी हद तक रोका जा सकता है। असमानता और अन्याय को कम करके ही माओवाद का खात्मा संभव है।
माओवाद को एक समस्या नहीं बल्कि एक मुक्त विचार मान कर ही इस गंभीर समस्या का निदान संभव है। जहाँ सभी पक्षों के लोग इसे सहानुभूति नहीं बल्कि इसे आवष्यक आवष्यकता मानें और एकमत से समाज के दलित, पिछड़ों और दशकों से हाषिए पर खड़े लोगों के जीवन का प्रष्न मानंे और उसी प्रकार निर्णय लंे तभी कुछ संभव है अन्यथा सरकार चाहे जितना गोली-बंदूक का भय दिखाए या हिंसा की बात करे नक्सलियों का कुछ खास नहीं कर पाई है और न निकट भविष्य में कुछ कर पाने की स्थिति में हैं।
- राणा अवधूत कुमार
मो0-09708077877
2 टिप्पणियां:
प्रभावी,
शुभकामना,
जारी रहें !!
आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज)
सरकार यदि दिल से चाह ले तो आतंकवाद का नामो निसान मिट जाए,,,,,
recent post: वह सुनयना थी,
एक टिप्पणी भेजें