बूकसूर मुसलमानों को आतंकवाद के मामलों में फर्जी तरीके से फंसाए जाने के आरोप बार बार लगते रहे हैं। नागरिक एंव मानावाधिकार संगठनों ने अपनी जांच रिपोर्टों में कई बार इस तरह के आरोप को पुष्ट करते हुए रिपोर्टों की शकल में अपने दावे भी पेश किए हैं। ऐसे दर्जनों मामले हैं जब अदालतों से इस तरह के संगीन आरोप में पकड़े गए बेगुनाह वर्षों बाद बरी हुए हैं। कई बार अदालत ने पुलिस को ऐसे ही फर्जी मुकदमों में बेगुनाहों को फंसाने के लिए फटकार भी लगाई है। लेकिन शायद पहली बार एक ऐसी घटना जिसमें ३३ लोगों की मौत हुई और ८० से अधिक लोग घायल हुए,के मुकदमें के आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने न केवल बरी किया बल्कि जांच एजेंसियों को फटकार लगाते हुए आरोपियों को स्पष्ट शब्दों में बेगुनाह कहा है। १६ मई, २०१४ को जब १६वीं लोकसभा के मतदान की गिनती चल रही थी और देश की सत्ता में एक बड़े बदलाव के संकेत आने लगे थे तो ठीक उसी समय उच्चतम न्यायालय में जस्टिस एपी पटनायक और जस्टिस वेंकट गोपाल गौड़ा २४ सितम्बर २००२ को अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले पर अपना फैसला सुना रहे थे। यह संयोग ही है कि देश में बदलाव के पीछे जहां गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अहम भूमिका थी तो गांधीनगर, गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमला भी उन्हीं के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ था और शासन की सहमति से जांच एजेंसियों द्वारा बेगुनाहों को फंसाने का आरोप भी लगे थे।
सुप्रीम कोर्ट से अपने फैसले में कहा ʺराष्ट्र की सुरक्षा और अखण्डता से जुड़े इस संगीन मामले में जांच एजेंसियों ने जिस अक्षमता से जांच की है उस पर हम अपनी वेदना प्रकट करते हैं। इतने बहुमूल्य जीवन छीन लेने के ज़िम्मेदार वास्तविक अपराधियों को पकड़ने के बजाए पुलिस ने बेगुनाह लोगों को पकड़ा और उन पर गम्भीर आरोप लगाए जिसके फलस्वरूप उन्हें कैद में रखा गया और फिर सज़ा दी गईʺ। इस फैसले से एक ओर जहां फांसी और अजीवन कारावास की सज़ा पाने वाले चार अभियुक्तों का ११ साल से भी अधिक समय तक जेल में रहने के बाद रिहाई का रास्ता साफ होगया वहीं वह सवाल भी एक बार फिर ताज़ा हो गए जो इन बेकसूरों की गिरफतारी के बाद उठाए गए थे। पलिस एंव जांच एजेंसियों की भूमिका और उनकी राजनीतिक सरपरसती के साथ साथ यह सवाल भी उठना स्वभाविक है कि विशेष पोटा अदालत से लेकर गुजरात हाईकोर्ट तक उन चीज़ों को देखने और महसूस करने में नाकाम क्यों रही जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना यह फैसला सुनाया है।
घटना यह थी कि २४ सितम्बर २००२ को शाम ४ बजकर ४५ मिनट पर दो आतंकवादियों ने अक्षरधाम परिसर में स्वचालित हथियारों और बमों से हमला कर दिया। हालात को काबू करने के लिए रात साढ़े ग्यारह बजे राषट्रीय सुरक्षा गार्ड के जवानों को लगाया गया। सुबह पौने सात बजे यह आपरेशन समाप्त हुआ जिसे ष्वज्र शक्तिष् का नाम दिया गया था। दोनो आतंकवादियों समेत कुल ३३ लोग मारे गए जिसमें एनएसजी का एक कमांडो और दो पुलिस अधिकारी भी शामिल थे। दो साल तक कोमा में रहने के बाद कमांडो सुजान सिंह की भी मृत्यु हो गई। कथित तौर पर मारे गए दोनों आतंकवादियों का सम्बन्ध लशकरे तोयबा और जैश मोहम्मद से था। उनमें से एक मुर्तज़ा हफिज़ यासीन पाकिस्तान के लाहौर और दूसरा अशरफ अली फारूक शेख रावलपिंडी के रहवासी थे। अगस्त २००३ में अहमदाबाद के दरियापुर और शाहपुर से आदम भई अजमेरीए अब्दुल कय्यूम मुफ्ती साहबए मुहम्मद सलीम शेखए अब्दुल मियां कादरी और अलताफ हुसैन को गिरफतार दिखाया गया। बरैली उत्तर प्रदेश निवासी शान मियां उर्फ चांद खां की गिरफतारी सितम्बर २००३ में दिखाई गई। इसके अलावा २८ अन्य फरार आरोपियों में से शौकतुल्लाह ग़ौरी को जूलाई २०१० में गिरफतार किया गया।
सभी आरोपियों के खिलाफ पोटा की विशेष अदालत में मुकदमा चला और जूलाई २००६ में पोटा अदालत ने आदम अजमेरीए शान मियां उर्फ चांद खां और अब्दुल कय्यूम मुफ्ती को मृत्यु दण्डए मुहम्मद सलीम को अजीवन कारावास और अब्दुल मियां कादरी एंव अलताफ हुसैन को क्रमशः १० और ५ वर्ष कैद की सजा सुनाई। इस फैसले के खिलाफ आरोपियों ने गुजरात हाई कोर्ट के अपील दायर की। गुजरात हाईकोर्ट ने भी मई २०१० में अपने फैसले में पोटा अदालत द्वारा दी गई सजाओं को बरकरार रखा। अन्त में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और देश की शीर्ष अदालत ने पोटा अदालत और हाईकोर्ट के फैसले को उलट दिया और सभी आरोपियों को स्पष्ट शब्दों में बेकसूर मानते हुए बाइज़्ज़त बरी कर दिया।
अक्षरधाम आतंकी हमले की जांच की कहानी जासूसी उपन्यास की तरह चलती हुई दिखाई देती है। दो हथियार बंद आतंकी अचानक अक्षरधाम मंदिर परिसर के बाहर बमों और स्वचालित हथियारों से हमला करते हैं। मंदिर के सभी गेट बंद कर दिए जाते हैं। आतंकी पिछले गेट से मंदिर परिसर में प्रवेश करने में सफल हो जाते हैं। स्थानीय पुलिस उनसे निपटने में नाकाम रहती है। एनएसजी के ब्लैक कैट कमांडो मोर्चा संभालते हैं और अन्त में दोनों आतंकी उनकी गोलियों से छलनी हो जाते हैं। फिर खून में डूबे हुए दोनो आतंकियों की पैन्ट की जेब से एक एक पत्र बरामद होता है जो बिल्कुल बेदाग़ है और उन पत्रों में उनके नाम पते व अन्य जानकारियों के अलावा उनके शरणदाताओं के नाम और पते भी मौजूद हैं। तफतीश की कहानी का एक सिरा इन्हीं पत्रों से शुरू होता है। तफतीश में एक दूसरी चीज़ जो निकल कर आती है वो यह कि एक तीसरा पाकिस्तनी आतंकी लाहौर का निवासी अय्यूब भी उक्त दोनों आतंकियों के साथ हमले से एक सप्ताह पूर्व भारत आया था। तीनों को आदम अजमेरी ने अपने भाई के घर में शरण दी थी और अन्य आरोपियों से मिलवाया था। मंदिर पर हमला मुर्तज़ा और फारूक ने किया था किन्तु हमले से पहले ही आदम अजमेरी के साथ अय्यूब मंदिर के पास बच्चों के पार्क में पहुंच गया था। हमले के बाद भागती हुई भीड़ के साथ आदम अजमेरी और अय्यूब वापस अहमदाबाद आगए और वहां से जैश मोहम्मद के आकाओं को हमले की कामयाबी की फोन द्वारा सूचना भी दी और उन्हीं की सलाह पर अय्यूब को बड़ोदरा पहुंचाया गया जहां से वह पाकिस्तान चला गया। अगर इस कहानी को सच मान लिया जाए तो यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब २४ सितम्बर को हमले के दिन ही पत्र बरामद हो गया था और यह भी पता चल गया था कि हमले की सफलता की सूचना पाक में बैठे आकाओं को फोन द्वारा अहमदाबाद से दी गई है तो आरोपियों तक पहंचने में ११ महीने का समय क्यों लगा बावजूद इसके कि आरोपी अहमदाबाद में ही मौजूद थेॽ उससे बड़ा सवाल यह कि दोनों मृत आतंकियों की गोलियों से छलनी और खून से लतपत लाश से बरामद की गई चिट्ठियों पर खून का धब्बा तक नहीं था और न ही मुड़े होने का कोई निशान थाए ऐसा कैसे हुआॽ कहानी के इस हिस्से के चार बड़े किरदार थे डीसीपी वंजाराए एसीपी सिंघलए पीआई वानर और पीआई पटेल।
कहानी का दूसरा पक्ष वह है जो आरोपियों ने बयान किए हैं। ९ अक्तूबर २००३ को पोटा अदालत के जज को लिखे गए एक पत्र में पेशे से रिक्शा चालक आदम अजमेरी ने बताया कि ९ अगस्त २००३ को दोपहर में क्राइम ब्रांच अहमदाबाद के ५दृ६ अहलकार उसके घर पहुंचे और कहा कि जो रिक्शा तुम चलाते हो वह चोरी का है। इस तरह उसे क्राइम ब्रांच आफिस ले जाया गया। वहां उसे यातना देकर अक्षरधाम मंदिर हमले का आरोप स्वीकार करने पर मजबूर किया गया। अपराध स्वीकार करने सम्बन्धी तहरीर रटवाई गई और कैमरे के सामने बुलवाकर उसे रिकार्ड किया गया। २९ सितम्बर को उसकी पत्नी को उसके पास लाया गया और सरकारी काग़ज़ात पर उसके और उसकी पत्नी के हस्ताक्षर लेने के बाद ३० सितम्बर को उसे अक्षरधाम मंदिर घटना के आरोपी के तौर पर अदालत में पेश करके रिमांड हासिल की गई। ४ सितम्बर को सिंघल साहब के कहने पर अपनी राइटिंग में उससे कुछ लिखवाया गया। ५ सितम्बर को उसे श्रीनगरए कश्मीर लेजाया गया और एक व्यक्ति का फोटो दिखाकर पहचान करने के लिए कहा गया परन्तु उसने उसे कभी देखा नहीं था इसलिए क्राइम ब्रांच के अधिकारियों के आदेश के विरुद्ध सच्ची बात कह दी जिसके लिए बाद में उसे बुरी तरह पीटा गया। ९ सितम्बर को उसे अहमदाबाद लाया गया जहां २६ सितम्बर को पोटा अदालत में पेश करने के बाद जेल भेज दिया गया। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आदम अजमेरी १९९८ आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर में चुनाव लड़ चुका था। उसके बाद वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गया। गोधरा कांड के बाद कांग्रेस पार्टी द्वारा भेजी गई रिलीफ उसने कांग्रेसी नेताओं के कहने मुसलमान दंगा पीड़ितों के बीच पर बांटी थी। दूसरी बात यह कि उसने वहां विजयी भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ हाईकोर्ट में मुकदमा किया था जो सुप्रीमकोर्ट तक गया था।
इसी प्रकार मुफ्ती अब्दुल कय्यूम का कहना है कि १७ अगस्त २००३ को दरियापुर हाजी सखी मस्जिद से मग़रिब की नमाज़ ;सूर्यास्त के समय की नमाज़द्ध से ठीक पहले क्राइम ब्रांच के ३दृ४ अहलकार उसके पास आए। उन्होंने कहा कि साहब ने एक जांच सिलसिले में अभी बुलाया है तीन चार दिन बाद आप वापस घर आ जाएंगे। वह लोग क्राइम ब्रांच गायकवाड़ हवेली ले गए। आंखों पर पट्टी बांध कर सिंघल साहब ;एसीपीद्ध के सामने पेश किया गया। उन्होनें अचानक पिटाई करना शुरू कर दिया। दूसरे दिन वंजारा साहब ;डीसीपीद्ध के सामने लाया गया तो उन्होंने ५दृ६ डंडे वालों ;पुलिसद्ध से पिटवाया और अक्षरधाम घटना में लिप्त होना स्वीकार करने के लिए कहा। उंगलियों में किलिप लगाकर करेंट लगाया गया और पैर के नाखूनों में पिन चुभाई गई। २९ अगस्त तक यातनाए दी जाती रहीं। फिर उसी दिन उनके पिता को बुलवाया गया और दोनों के कुछ कागज़ात पर हस्ताक्षर लिए गए और उसके बाद ३० अगस्त को अदालत में पेश करके रिमांड पर ले लिया गया। उससे यह भी स्वीकार करने को कहा गया कि आतंकियों की जेब से बरामद चिट्ठी उसी ने लिखी थी। फिर उससे उन चिट्ठियों को पढ़कर अपने हस्तलेख में लिखने के लिए कहा गया और ४०दृ५० चिट्ठियां लिखवाई गयीं। उसके बाद ५ सितम्बर को श्रीनगरए कश्मीर लेजाया गया जहां एक व्यक्ति का फोटो दिखाया गया जिसे उसने पहचानने से इनकार किया तो बाद में उसकी फिर पिटाई की गई। ९ सितम्बर को उसे वापस अहमदाबाद लाया गया और २६ सितम्बर को पोटा अदालत में पेश करके जेल भेज दिया गया।
श्रीनगर में आदम अजमेरी और मुफ्ती कय्यूम को जिस व्यक्ति की फोटो दिखा कर पहचान करवाई जा रही थी वह कोई और नहीं बल्कि ष्चांद मोटर्सष् के नाम से गैरेज चलाने वाले मिकेनिक शान मियां उर्फ चांद खां थे। बरैलीए उत्तर प्रदेश के मूल निवासी चांद खां को कारगो पुलिस श्रीनगर ने ९ अगस्त २००३ को उसी दिन पकड़ा था जिस दिन अहमदाबाद में आदम अजमेरी को काइम ब्रांच के अहलकार चोरी के रिक्शे के बहाने से पकड़ कर ले गए थे। उसकी गिरफतारी भी कारगो पुलिस श्रीनगर ने ३० अगस्त को एक ऐसी गाड़ी के ड्राइवर के रूप में दिखाई थी जिसमें से कारगो पुलिस के अनुसार कथित तौर पर हथगोलेए बारूद और स्वचालित हथियार बरामद हुए थे। ९ अगस्त को आदम अजमेरी को अहमदाबाद में और चांद खां को श्रीनगर में पकड़ा जानाए २१ दिनों तक गैरकानूनी हिरासत में रखे जाने के बाद दोनों की गिरफतारी ३० अगस्त को दिखाया जाना ;यद्यपि कि यह सब दो अलग राज्यों में हो रहा थाद्ध और दोनों को अक्षरधाम घटना में आरोपी बनाया जाना क्या मात्र एक संयोग थाॽ अगर हम पिछली कुछ घटनाओं को देखें तो शायद इसका जवाब होगा ष्नहीष्। आदम अजमेरी और अहमदाबाद से गिरफतार किए जाने अन्य आरोपियों को कथित रूप से यातनाएं देकर अक्षरधाम घटना के आरोप का स्वीकार करवाने वाले अधिकारियों में जिस वंजारा और सिंघल की सबसे बड़ी भूमिका सामने आई है उन पर फर्जी कहानियां गढ़ने और बकसूरों को फंसाने के आरोप पहले भी लग चुके हैं। उक्त दानों ही अधिकारी इस समय इशरत जहां और सोहराबुद्दीन फर्जी इनकाउन्टर मामले में जेल में हैं। वंजारा एन्ड कम्पनी के गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री समेत वरिष्ठ मंत्रियों के इशारे पर काम करने का प्रमाण स्वंय वंजारा द्वारा लिखे गए पत्र से मिलता है जो उसने जेल से लिखा था। इशरत जहां फर्जी इनकाउन्टर मामले में सीबीआई ने आईबी अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट तक दाखिल कर दी है जिनका वंजारा और सिंघल जैसे अधिकारियों के साथ बेगुनाहों के इनकाउन्टर ;हत्याद्ध में भर पूर सहयोग था। इस मामले में भी जहां दो अलग अलग राज्यों में पकड़े गए बेगुनाहों को फर्जी तरीके से फंसाने की बात सामने आई है वह गुजरात सरकार की सहमति और आईबी के सहयोग के बिना सम्भव नहीं हो सकती थी। सुप्रीमकोर्ट ने अपने इसी फैसले में आरोपियों पर पोटा लगाए जाने के औचित्य पर भी सवाल उठाते हुए जो टिप्पणी की है वह अपने आप में इस पूर आपरेशन में गुजरात सरकार के समर्थन का सबूत है। फैसले में कहा गया है ʺक्या इस मामले में २१⁄११⁄२००३ को राज्य सरकार द्वारा दी गई संस्तुति पोटा की धारा ५० के अनुसार थी। वर्तमान केस में ऐसा ज़ाहिर नहीं होता कि अनुमति प्रदान करने वाली अथारिटी ने अपने विवेक का प्रयोग इस मामले में अनुमति देने की आवश्यक्ता से सन्तुष्ट हो कर किया। ३ण् साफ है कि गृहमंत्री द्वारा अनुमति प्रदान करना अनुचित था इसलिए इसे अवैध करार दिया जाता हैʺ। पोटा के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति गृहमंत्रालय से लेनी पड़ती है और उसके लिए पोटा कानून में ही दिशा निर्देश मौजूद है। लेकिन गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री ने नियमों की अनदेखी करते हुए इसकी अनुमति प्रदान की। उस समय गुजरात सरकार के गृहमंत्रालय का कार्यभार स्वंय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में था। हालांकि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में इस मामले में होने वाली किसी तरह की अग्रिम जांच और उसके नतीजे में साज़िश की सच्चार्इ के सामने आने की कोई सम्भावना बनती दिखाई नहीं देती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में केन्द्र की नई सरकार सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले का आदर करते हुए इस प्रकार के मामलों की पुनरावृत्ति न हो उसके लिए कोई कदम उठाती है या नहीं।
- मसीहुद्दीन मस्सू
सुप्रीम कोर्ट से अपने फैसले में कहा ʺराष्ट्र की सुरक्षा और अखण्डता से जुड़े इस संगीन मामले में जांच एजेंसियों ने जिस अक्षमता से जांच की है उस पर हम अपनी वेदना प्रकट करते हैं। इतने बहुमूल्य जीवन छीन लेने के ज़िम्मेदार वास्तविक अपराधियों को पकड़ने के बजाए पुलिस ने बेगुनाह लोगों को पकड़ा और उन पर गम्भीर आरोप लगाए जिसके फलस्वरूप उन्हें कैद में रखा गया और फिर सज़ा दी गईʺ। इस फैसले से एक ओर जहां फांसी और अजीवन कारावास की सज़ा पाने वाले चार अभियुक्तों का ११ साल से भी अधिक समय तक जेल में रहने के बाद रिहाई का रास्ता साफ होगया वहीं वह सवाल भी एक बार फिर ताज़ा हो गए जो इन बेकसूरों की गिरफतारी के बाद उठाए गए थे। पलिस एंव जांच एजेंसियों की भूमिका और उनकी राजनीतिक सरपरसती के साथ साथ यह सवाल भी उठना स्वभाविक है कि विशेष पोटा अदालत से लेकर गुजरात हाईकोर्ट तक उन चीज़ों को देखने और महसूस करने में नाकाम क्यों रही जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना यह फैसला सुनाया है।
घटना यह थी कि २४ सितम्बर २००२ को शाम ४ बजकर ४५ मिनट पर दो आतंकवादियों ने अक्षरधाम परिसर में स्वचालित हथियारों और बमों से हमला कर दिया। हालात को काबू करने के लिए रात साढ़े ग्यारह बजे राषट्रीय सुरक्षा गार्ड के जवानों को लगाया गया। सुबह पौने सात बजे यह आपरेशन समाप्त हुआ जिसे ष्वज्र शक्तिष् का नाम दिया गया था। दोनो आतंकवादियों समेत कुल ३३ लोग मारे गए जिसमें एनएसजी का एक कमांडो और दो पुलिस अधिकारी भी शामिल थे। दो साल तक कोमा में रहने के बाद कमांडो सुजान सिंह की भी मृत्यु हो गई। कथित तौर पर मारे गए दोनों आतंकवादियों का सम्बन्ध लशकरे तोयबा और जैश मोहम्मद से था। उनमें से एक मुर्तज़ा हफिज़ यासीन पाकिस्तान के लाहौर और दूसरा अशरफ अली फारूक शेख रावलपिंडी के रहवासी थे। अगस्त २००३ में अहमदाबाद के दरियापुर और शाहपुर से आदम भई अजमेरीए अब्दुल कय्यूम मुफ्ती साहबए मुहम्मद सलीम शेखए अब्दुल मियां कादरी और अलताफ हुसैन को गिरफतार दिखाया गया। बरैली उत्तर प्रदेश निवासी शान मियां उर्फ चांद खां की गिरफतारी सितम्बर २००३ में दिखाई गई। इसके अलावा २८ अन्य फरार आरोपियों में से शौकतुल्लाह ग़ौरी को जूलाई २०१० में गिरफतार किया गया।
सभी आरोपियों के खिलाफ पोटा की विशेष अदालत में मुकदमा चला और जूलाई २००६ में पोटा अदालत ने आदम अजमेरीए शान मियां उर्फ चांद खां और अब्दुल कय्यूम मुफ्ती को मृत्यु दण्डए मुहम्मद सलीम को अजीवन कारावास और अब्दुल मियां कादरी एंव अलताफ हुसैन को क्रमशः १० और ५ वर्ष कैद की सजा सुनाई। इस फैसले के खिलाफ आरोपियों ने गुजरात हाई कोर्ट के अपील दायर की। गुजरात हाईकोर्ट ने भी मई २०१० में अपने फैसले में पोटा अदालत द्वारा दी गई सजाओं को बरकरार रखा। अन्त में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और देश की शीर्ष अदालत ने पोटा अदालत और हाईकोर्ट के फैसले को उलट दिया और सभी आरोपियों को स्पष्ट शब्दों में बेकसूर मानते हुए बाइज़्ज़त बरी कर दिया।
अक्षरधाम आतंकी हमले की जांच की कहानी जासूसी उपन्यास की तरह चलती हुई दिखाई देती है। दो हथियार बंद आतंकी अचानक अक्षरधाम मंदिर परिसर के बाहर बमों और स्वचालित हथियारों से हमला करते हैं। मंदिर के सभी गेट बंद कर दिए जाते हैं। आतंकी पिछले गेट से मंदिर परिसर में प्रवेश करने में सफल हो जाते हैं। स्थानीय पुलिस उनसे निपटने में नाकाम रहती है। एनएसजी के ब्लैक कैट कमांडो मोर्चा संभालते हैं और अन्त में दोनों आतंकी उनकी गोलियों से छलनी हो जाते हैं। फिर खून में डूबे हुए दोनो आतंकियों की पैन्ट की जेब से एक एक पत्र बरामद होता है जो बिल्कुल बेदाग़ है और उन पत्रों में उनके नाम पते व अन्य जानकारियों के अलावा उनके शरणदाताओं के नाम और पते भी मौजूद हैं। तफतीश की कहानी का एक सिरा इन्हीं पत्रों से शुरू होता है। तफतीश में एक दूसरी चीज़ जो निकल कर आती है वो यह कि एक तीसरा पाकिस्तनी आतंकी लाहौर का निवासी अय्यूब भी उक्त दोनों आतंकियों के साथ हमले से एक सप्ताह पूर्व भारत आया था। तीनों को आदम अजमेरी ने अपने भाई के घर में शरण दी थी और अन्य आरोपियों से मिलवाया था। मंदिर पर हमला मुर्तज़ा और फारूक ने किया था किन्तु हमले से पहले ही आदम अजमेरी के साथ अय्यूब मंदिर के पास बच्चों के पार्क में पहुंच गया था। हमले के बाद भागती हुई भीड़ के साथ आदम अजमेरी और अय्यूब वापस अहमदाबाद आगए और वहां से जैश मोहम्मद के आकाओं को हमले की कामयाबी की फोन द्वारा सूचना भी दी और उन्हीं की सलाह पर अय्यूब को बड़ोदरा पहुंचाया गया जहां से वह पाकिस्तान चला गया। अगर इस कहानी को सच मान लिया जाए तो यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब २४ सितम्बर को हमले के दिन ही पत्र बरामद हो गया था और यह भी पता चल गया था कि हमले की सफलता की सूचना पाक में बैठे आकाओं को फोन द्वारा अहमदाबाद से दी गई है तो आरोपियों तक पहंचने में ११ महीने का समय क्यों लगा बावजूद इसके कि आरोपी अहमदाबाद में ही मौजूद थेॽ उससे बड़ा सवाल यह कि दोनों मृत आतंकियों की गोलियों से छलनी और खून से लतपत लाश से बरामद की गई चिट्ठियों पर खून का धब्बा तक नहीं था और न ही मुड़े होने का कोई निशान थाए ऐसा कैसे हुआॽ कहानी के इस हिस्से के चार बड़े किरदार थे डीसीपी वंजाराए एसीपी सिंघलए पीआई वानर और पीआई पटेल।
कहानी का दूसरा पक्ष वह है जो आरोपियों ने बयान किए हैं। ९ अक्तूबर २००३ को पोटा अदालत के जज को लिखे गए एक पत्र में पेशे से रिक्शा चालक आदम अजमेरी ने बताया कि ९ अगस्त २००३ को दोपहर में क्राइम ब्रांच अहमदाबाद के ५दृ६ अहलकार उसके घर पहुंचे और कहा कि जो रिक्शा तुम चलाते हो वह चोरी का है। इस तरह उसे क्राइम ब्रांच आफिस ले जाया गया। वहां उसे यातना देकर अक्षरधाम मंदिर हमले का आरोप स्वीकार करने पर मजबूर किया गया। अपराध स्वीकार करने सम्बन्धी तहरीर रटवाई गई और कैमरे के सामने बुलवाकर उसे रिकार्ड किया गया। २९ सितम्बर को उसकी पत्नी को उसके पास लाया गया और सरकारी काग़ज़ात पर उसके और उसकी पत्नी के हस्ताक्षर लेने के बाद ३० सितम्बर को उसे अक्षरधाम मंदिर घटना के आरोपी के तौर पर अदालत में पेश करके रिमांड हासिल की गई। ४ सितम्बर को सिंघल साहब के कहने पर अपनी राइटिंग में उससे कुछ लिखवाया गया। ५ सितम्बर को उसे श्रीनगरए कश्मीर लेजाया गया और एक व्यक्ति का फोटो दिखाकर पहचान करने के लिए कहा गया परन्तु उसने उसे कभी देखा नहीं था इसलिए क्राइम ब्रांच के अधिकारियों के आदेश के विरुद्ध सच्ची बात कह दी जिसके लिए बाद में उसे बुरी तरह पीटा गया। ९ सितम्बर को उसे अहमदाबाद लाया गया जहां २६ सितम्बर को पोटा अदालत में पेश करने के बाद जेल भेज दिया गया। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आदम अजमेरी १९९८ आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर में चुनाव लड़ चुका था। उसके बाद वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गया। गोधरा कांड के बाद कांग्रेस पार्टी द्वारा भेजी गई रिलीफ उसने कांग्रेसी नेताओं के कहने मुसलमान दंगा पीड़ितों के बीच पर बांटी थी। दूसरी बात यह कि उसने वहां विजयी भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ हाईकोर्ट में मुकदमा किया था जो सुप्रीमकोर्ट तक गया था।
इसी प्रकार मुफ्ती अब्दुल कय्यूम का कहना है कि १७ अगस्त २००३ को दरियापुर हाजी सखी मस्जिद से मग़रिब की नमाज़ ;सूर्यास्त के समय की नमाज़द्ध से ठीक पहले क्राइम ब्रांच के ३दृ४ अहलकार उसके पास आए। उन्होंने कहा कि साहब ने एक जांच सिलसिले में अभी बुलाया है तीन चार दिन बाद आप वापस घर आ जाएंगे। वह लोग क्राइम ब्रांच गायकवाड़ हवेली ले गए। आंखों पर पट्टी बांध कर सिंघल साहब ;एसीपीद्ध के सामने पेश किया गया। उन्होनें अचानक पिटाई करना शुरू कर दिया। दूसरे दिन वंजारा साहब ;डीसीपीद्ध के सामने लाया गया तो उन्होंने ५दृ६ डंडे वालों ;पुलिसद्ध से पिटवाया और अक्षरधाम घटना में लिप्त होना स्वीकार करने के लिए कहा। उंगलियों में किलिप लगाकर करेंट लगाया गया और पैर के नाखूनों में पिन चुभाई गई। २९ अगस्त तक यातनाए दी जाती रहीं। फिर उसी दिन उनके पिता को बुलवाया गया और दोनों के कुछ कागज़ात पर हस्ताक्षर लिए गए और उसके बाद ३० अगस्त को अदालत में पेश करके रिमांड पर ले लिया गया। उससे यह भी स्वीकार करने को कहा गया कि आतंकियों की जेब से बरामद चिट्ठी उसी ने लिखी थी। फिर उससे उन चिट्ठियों को पढ़कर अपने हस्तलेख में लिखने के लिए कहा गया और ४०दृ५० चिट्ठियां लिखवाई गयीं। उसके बाद ५ सितम्बर को श्रीनगरए कश्मीर लेजाया गया जहां एक व्यक्ति का फोटो दिखाया गया जिसे उसने पहचानने से इनकार किया तो बाद में उसकी फिर पिटाई की गई। ९ सितम्बर को उसे वापस अहमदाबाद लाया गया और २६ सितम्बर को पोटा अदालत में पेश करके जेल भेज दिया गया।
श्रीनगर में आदम अजमेरी और मुफ्ती कय्यूम को जिस व्यक्ति की फोटो दिखा कर पहचान करवाई जा रही थी वह कोई और नहीं बल्कि ष्चांद मोटर्सष् के नाम से गैरेज चलाने वाले मिकेनिक शान मियां उर्फ चांद खां थे। बरैलीए उत्तर प्रदेश के मूल निवासी चांद खां को कारगो पुलिस श्रीनगर ने ९ अगस्त २००३ को उसी दिन पकड़ा था जिस दिन अहमदाबाद में आदम अजमेरी को काइम ब्रांच के अहलकार चोरी के रिक्शे के बहाने से पकड़ कर ले गए थे। उसकी गिरफतारी भी कारगो पुलिस श्रीनगर ने ३० अगस्त को एक ऐसी गाड़ी के ड्राइवर के रूप में दिखाई थी जिसमें से कारगो पुलिस के अनुसार कथित तौर पर हथगोलेए बारूद और स्वचालित हथियार बरामद हुए थे। ९ अगस्त को आदम अजमेरी को अहमदाबाद में और चांद खां को श्रीनगर में पकड़ा जानाए २१ दिनों तक गैरकानूनी हिरासत में रखे जाने के बाद दोनों की गिरफतारी ३० अगस्त को दिखाया जाना ;यद्यपि कि यह सब दो अलग राज्यों में हो रहा थाद्ध और दोनों को अक्षरधाम घटना में आरोपी बनाया जाना क्या मात्र एक संयोग थाॽ अगर हम पिछली कुछ घटनाओं को देखें तो शायद इसका जवाब होगा ष्नहीष्। आदम अजमेरी और अहमदाबाद से गिरफतार किए जाने अन्य आरोपियों को कथित रूप से यातनाएं देकर अक्षरधाम घटना के आरोप का स्वीकार करवाने वाले अधिकारियों में जिस वंजारा और सिंघल की सबसे बड़ी भूमिका सामने आई है उन पर फर्जी कहानियां गढ़ने और बकसूरों को फंसाने के आरोप पहले भी लग चुके हैं। उक्त दानों ही अधिकारी इस समय इशरत जहां और सोहराबुद्दीन फर्जी इनकाउन्टर मामले में जेल में हैं। वंजारा एन्ड कम्पनी के गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री समेत वरिष्ठ मंत्रियों के इशारे पर काम करने का प्रमाण स्वंय वंजारा द्वारा लिखे गए पत्र से मिलता है जो उसने जेल से लिखा था। इशरत जहां फर्जी इनकाउन्टर मामले में सीबीआई ने आईबी अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट तक दाखिल कर दी है जिनका वंजारा और सिंघल जैसे अधिकारियों के साथ बेगुनाहों के इनकाउन्टर ;हत्याद्ध में भर पूर सहयोग था। इस मामले में भी जहां दो अलग अलग राज्यों में पकड़े गए बेगुनाहों को फर्जी तरीके से फंसाने की बात सामने आई है वह गुजरात सरकार की सहमति और आईबी के सहयोग के बिना सम्भव नहीं हो सकती थी। सुप्रीमकोर्ट ने अपने इसी फैसले में आरोपियों पर पोटा लगाए जाने के औचित्य पर भी सवाल उठाते हुए जो टिप्पणी की है वह अपने आप में इस पूर आपरेशन में गुजरात सरकार के समर्थन का सबूत है। फैसले में कहा गया है ʺक्या इस मामले में २१⁄११⁄२००३ को राज्य सरकार द्वारा दी गई संस्तुति पोटा की धारा ५० के अनुसार थी। वर्तमान केस में ऐसा ज़ाहिर नहीं होता कि अनुमति प्रदान करने वाली अथारिटी ने अपने विवेक का प्रयोग इस मामले में अनुमति देने की आवश्यक्ता से सन्तुष्ट हो कर किया। ३ण् साफ है कि गृहमंत्री द्वारा अनुमति प्रदान करना अनुचित था इसलिए इसे अवैध करार दिया जाता हैʺ। पोटा के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति गृहमंत्रालय से लेनी पड़ती है और उसके लिए पोटा कानून में ही दिशा निर्देश मौजूद है। लेकिन गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री ने नियमों की अनदेखी करते हुए इसकी अनुमति प्रदान की। उस समय गुजरात सरकार के गृहमंत्रालय का कार्यभार स्वंय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में था। हालांकि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में इस मामले में होने वाली किसी तरह की अग्रिम जांच और उसके नतीजे में साज़िश की सच्चार्इ के सामने आने की कोई सम्भावना बनती दिखाई नहीं देती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में केन्द्र की नई सरकार सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले का आदर करते हुए इस प्रकार के मामलों की पुनरावृत्ति न हो उसके लिए कोई कदम उठाती है या नहीं।
- मसीहुद्दीन मस्सू
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