सोमवार, 24 नवंबर 2014

मुसलमानों की राजनैतिक लामबंदी बदलता स्वरूप भाग.2

पिछले भाग में हमने देखा कि किस तरहए स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को धार्मिक.सांस्कृतिक मुद्दों पर लामबंद किया। परंतु चूंकि देश का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ था इसलिए मुसलमानों द्वारा उनकी विशिष्ठ संस्कृति की बात करते ही हिंदू राष्ट्रवादी, इस्लामिक राज्य का हौव्वा खड़ा करने लगते थे। मुसलमानों की धार्मिक.सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के प्रयास को 'हिन्दू' संस्कृति पर हमले और उसके अस्तित्व के लिए खतरे के तौर पर देखा जाता था। इस सब के चलते,सन् 1980 के दशक में देश में सांप्रदायिक हिंसा में जबरदस्त तेजी आई। कांग्रेस, बाबरी मस्जिद को नहीं बचा सकी और मुसलमानों को लगा कि वह पार्टी उनके धार्मिक.सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा करने में भी असफल है। अतः वे कांग्रेस से दूर होने लगे। क्षेत्रीय पार्टियों ने सुरक्षा के मुद्दे पर मुसलमानों को अपने पक्ष में लामबंद किया। परंतु वे समुदाय को एकसार मानते रहे एवं इन पार्टियों ने समुदाय की विविधतापूर्ण संस्कृति और उसके अलग.अलग तबकों के विविध हितों पर ध्यान नहीं दिया। सुरक्षा का मतलब सिर्फ यह था कि भविष्य में सांप्रदायिक दंगे नहीं होंगे। परंतु पूर्व में हुई सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुए लोगों को न्याय दिलवाने की बात ये पार्टियां नहीं करती थीं और ना ही यह गारंटी देने को तैयार थीं कि हिंसा दोहराई नहीं जाएगी। मोटे तौर पर, देश के पश्चिमी और उत्तरी हिस्सों में परिद्रश्य कुछ ऐसा ही था।
सुरक्षा के मुद्दे की वापसी
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद मुसलमानों की संस्कृति और धर्म के ठेकेदार कांग्रेस से दूर हो गए। समुदाय ने शिक्षा और जीवनयापन से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। ऐसा लगता था कि आगे बढ़ने का यही एक रास्ता है। परंतु गुजरात के सन 2002 के मुस्लिम कत्लेआम के बाद, सुरक्षा की चिंता एक बार फिर महत्वपूर्ण बन गई, विशेषकर उत्तर भारत में। मुस्लिम मतदाता धीरे.धीरे कांग्रेस की ओर लौटने लगे। जहां सन् 2002 तक हिंदू राष्ट्रवादियों की नीति बड़े और भयावह दंगे कराकर मुसलमानों को निशाना बनाने  की थी वहीं 21वीं सदी के पहले दशक में, खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल मुसलमानों को निशाना बनाने और उन्हें राष्ट्रद्रोही, आतंकवादी और देश का दुश्मन सिद्ध करने के लिए किया जाने लगा। राजनैतिक संरक्षण प्राप्त गुजरात पुलिस के अधिकारी कभी भी कुछ मुस्लिम युवकों को मार डालते थे और उन्हें ऐसा आतंकी बताते थे जो हिंदू नायक नरेन्द्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की कार्यवाहियों में सन् 2004 में इशरत जहां और जावेद शैख मारे गए तो 2005 में सोहराबुद्दीन शैख व कौसर बानो, 2006 में सोहराबुद्दीन का मित्र तुलसीराम प्रजापति, जमाल सादिक और कई अन्य। इन हत्याओं,जिन्हें 'मुठभेड़' बताया जाता था, के बाद मीडिया के जरिए मुस्लिम समुदाय के चेहरे पर कालिख पोतने की भरपूर कोशिश की जाती थी। इस तरह की फर्जी मुठभेड़ें कांग्रेस शासन में भी हुईं जिनमें से एक थी बाटला हाउस मुठभेड़। हर आतंकी हमले के बाद.फिर चाहे उसके शिकार मुसलमान ही क्यों न रहे हों.बड़ी संख्या में निर्दोष मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार कर लिया जाता था। उत्तर भारत में मुसलमान धीरे.धीरे कांग्रेस की तरफ आने लगेए विशेषकर उन राज्यों मेंए जहां की राजनीति द्विधुर्वीय थी और कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त कोई तीसरी शक्ति अस्तित्व में ही नहीं थी। सन् 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में 9 सीटें जीतीं और सन् 2009 में 15।
हालिया चुनाव में कांग्रेस मुसलमानों के केवल एक हिस्से को ही अपनी ओर आकर्षित कर सकी और वह भी धार्मिक.सांस्कृतिक मसलों को लेकर नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा और बेहतरी के वायदों के बल पर। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के अध्ययन के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनाई जिसे सच्चर समिति के नाम से जाना जाता है। सच्चर समिति ने यह पाया कि मुसलमानों की सामाजिक.आर्थिक स्थिति बहुत खराब है और वे अन्य सभी समुदायों से काफी पीछे हैं। कांग्रेस सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए प्रधानमंत्री का 15 सूत्रीय कार्यक्रम भी लागू किया परंतु इसे लागू करने में भारी कोताही बरती गई।
मुस्लिम समुदाय के नेतृत्व के एक हिस्से ने पिछड़े मुसलमानों ही नहीं बल्कि सभी मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने की मांग की और यह दावा किया कि पूरा मुस्लिम समुदाय ही पिछड़ा और भेदभाव का शिकार है। यह सही नहीं था। उदाहरण के लिए, अशरफ मुसलमान.ऊँची जातियों से धर्मपरिवर्तन कर बने मुसलमान.जैसे सैयद और पठान व व्यापारिक समुदाय जैसे बोहरा और मेमनए अन्य मुसलमानों की तुलना में कहीं अधिक पढ़े.लिखे और संपन्न थे। इसके अतिरिक्त, पूरे समुदाय को आरक्षण देना, धर्म के आधार पर भेदभाव करना होता जो कि संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 द्वारा प्रतिबंधित है। आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकारों ने तकनीकी रूप से पिछड़ेपन के आधार पर परंतु व्यावहारिक तौर पर लगभग पूरे समुदाय को, आरक्षण प्रदान कर दिया। परंतु अदालतों ने पहले आंध्रप्रदेश और बाद में महाराष्ट्र सरकार के निर्णयों को रद्द कर दिया।
कांग्रेस, समुदाय के युवकों को खुफिया एजेंसियों से बचाने में असफल रही। कांग्रेस उन पुलिस अधिकारियों को सजा भी नहीं दिलवा सकी जिन्होंने फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोष मुस्लिम युवकों की जान ली। फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला तब रूका जब कुछ साहसी व्यक्तियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने ऐसी मुठभेड़ों में शामिल पुलिस अधिकारियों की पहचान कर उन्हें सजा दिलवाने की कोशिशें शुरू कीं। समुदाय के युवक गुस्से से उबल रहे थे और इस बारूद को एक तीली दिखाने भर की देर थी। मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन ने इसी गुस्से का लाभ उठाया। समुदाय को निशाना बनाए जाने के साथ ही शुरू हुआ राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय। उन्होंने विकास का वायदा कर सत्ता पाने में सफलता हासिल कर ली। मोदी का प्रचारतंत्र चाहे कुछ भी कहे परंतु मुसलमान जानते हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने का अर्थ है मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र में दूसरे दर्जे के नागरिक बनाए जाने की गंभीर आशंका। हर लोकसभा चुनाव में सदन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है। जहां 1947 में यह 13.1 प्रतिशत था वहीं 16वीं लोकसभा में यह घटकर 4 प्रतिशत ;22 सांसद रह गया। यह तब जबकि मुसलमान कुल आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हैं।
धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से मोहभंग
निर्दोष मुस्लिम युवकों को निशाना बनाया जा रहा थाए समुदाय की बेहतरी की योजनाएं लागू नहीं की जा रही थीं और हिंदू राष्ट्रवादी दिन प्रति दिन और आक्रामक होते जा रहे थे। ऐसे में मुसलमानों का सभी 'धर्मनिरपेक्ष' पार्टियों से मोहभंग होने लगा। मौलाना मदनी और जमायत उलेमा.ए.हिंद, जो कि कांग्रेस के प्रति झुकाव रखते थे, तक ने यह प्रचार शुरू कर दिया कि कांग्रेस केवल हिंदू राष्ट्रवाद का डर दिखाकर मुसलमानों के वोट कबाड़ रही है। मौलाना मदनी और जमायत ने देश भर में कई सभाएं कीं जिनका एक ही संदेश था और वह यह कि केवल मुसलमानों को डराकर उनके वोट हासिल नहीं किए जा सकते। उनके वोट केवल उनकी भलाई के लिए सकारात्मक कदम उठाकर हासिल किए जा सकते हैं। ये कदम क्या होने चाहिए, इस बारे में इन सभाओं में कुछ भी नहीं कहा जाता था। इनमें मुसलमानों की न्यूनतम मांगे पूरी करने की मांग की जाती थी और वे थीं सन् 2006 के मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में आरोपी बनाए गए मुस्लिम युवकों की तुरंत रिहाई क्योंकि राष्ट्रीय जांच एजेंसी ;एनआईए ने उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं पाया था। इसके अलावा, स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान से साफ था कि इस घटना के पीछे हिंदू राष्ट्रवादी थे। उनकी अन्य मांगों में शामिल था निर्दोष मुस्लिम युवकों को फंसाने वाली खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही और नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में मुसलमानों के लिए आरक्षण। इमाम बुखारी ने कांग्रेस का साथ दिया परंतु मुसलमानों में बुखारी की पैठ कतई उतनी नहीं है जितनी कि समझी या मानी जाती है। और यह बात एक के बाद अनेक चुनावों में साबित हुई है।
जहां'धर्मनिरपेक्ष पार्टियां' असफल हो गई थीं और मुसलमानों का उनसे मोहभंग हो गया था वहीं मुसलमानों की बहुलता वाले राजनैतिक दलों की स्थापना करने का दबाव बढ़ रहा था। सन् 2008 में मोहम्मद अय्यूब नाम के एक मुस्लिम सर्जन ने उत्तरप्रदेश में पीस पार्टी की स्थापना की। सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी ने चार सीटें जीतीं। जल्दी ही पीस पार्टी, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, दिल्ली, मध्यप्रदेश,राजस्थान, महाराष्ट्र, ओडिशा व छत्तीसगढ़ में फैल गई। मुसलमानों के अधिकांश वोट पीस पार्टी को मिलने लगे। केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग मुसलमानों के बीच लोकप्रिय थी।
मालेगांव में बम धमाकों के बाद मुफ्ती इस्माईल की लोकप्रियता बढ़ने लगी। समुदाय में जबरदस्त गुस्सा था क्योंकि मुसलमानों को लगता था कि उनके युवकों को बम धमाकों के मामले में झूठा फंसाया गया है। मालेगांव नगर निगम के सन् 2007 के चुनाव के पहलेए तीसरी महाज या तीसरा मोर्चा बनाया गया और वह कांग्रेस व एनसीपी विरोधी लहर के चलते नगर निगम में सत्ता में आ गया। मुफ्ती इस्माईल ने सन् 2009 का विधानसभा चुनाव जनसुराज्य शक्ति पार्टी के टिकट पर लड़ा और कांग्रेस उम्मीदवार व तत्कालीन विधायक शैख रशीद को हरा दिया। परंतु बाद में मुफ्ती ने एनसीपी की सदस्यता ले ली। पिछले विधानसभा चुनाव में मुफ्ती इस्माईल को कांग्रेस उम्मीदवार शैख रशीद के हाथों हार झेलनी पड़ी। इसका मुख्य कारण यह था कि मुफ्ती ने अपने वायदे पूरे नहीं किए।
महाराष्ट्र में एमआईएम व मुस्लिम.बहुल पार्टियों का उदय
महाराष्ट्र में एमआईएम के उदय को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। मजलिस.ए.इत्तेहाद.अल. मुसलमीन की स्थापना 1927 में हैदराबाद के तत्कालीन शासक को सलाह देने और उनका समर्थन करने के लिए हुई थी। यह सभी मुस्लिम पंथों और बिरादरियों का मिलाजुला संगठन था। रजाकारों की हार और हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय के बाद, एमआईएम सन् 1957 तक निष्क्रिय रही। इस साल उसे सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने पुनर्जीवित किया 'ताकि आपके ;मुसलमान तबको  को राजनैतिक बल मिल सके'। सन् 1960 में एमआईएम ने हैदराबाद नगर निगम की 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और इनमें से 19 पर जीत हासिल की। 1967 में एमआईएम के तीन उम्मीदवार विधानसभा सदस्य चुने गए। आंध्रप्रदेश में तेलुगूदेशम पार्टी के उदय के बाद, एमआईएम ने यह भविष्यवाणी की कि हैदराबाद के गैर.मुस्लिम वोट, तेलुगूदेशम और कांग्रेस के बीच बंट जाएंगे। एमआईएम अपने भड़काऊ वक्तव्यों के लिए जानी जाती है। उसे सन् 1984 के आम चुनाव में 35 प्रतिशत मुस्लिम मत प्राप्त हुए और तब से लेकर आज तक वह चुनावों में जीत हासिल करती आई है। एमआईएम ने पिछले कुछ वर्षों में एमआईएम.भीम एकता का नारा देकर दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास भी किया है।
तेलंगाना के बाहर, एमआईएम ने अपनी पहली बड़ी जीत नांदेड़ नगर निगम चुनाव में हासिल की। नांदेड़ में मुसलमान, आबादी का लगभग 30 फीसदी हैं और सन 2012 में हुए चुनाव में एमआईएम ने 81 में से 11 सीटें जीतीं। यह औरगांबाद, मालेगांव आदि के निर्दोष मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी और उन्हें आतंकवाद संबंधी मामलों में फंसाए जाने की प्रतिक्रिया थी। हालिया विधानसभा चुनाव में औरगांबाद केंद्रीय सीट से इम्तियाज़ ज़लील और मुंबई की बायकुला सीट से वारिस पठान की जीत भी इन्हीं कारणों से हुई।
निष्कर्ष
महाराष्ट्र के दो चुनाव क्षेत्रों में एमआईएम की विजय के बाद एक मुस्लिम युवक ने इन पंक्तियों के लेखक से कहाए ' हम हिंदू राष्ट्रवादियों के बढ़ते प्रभाव से डरते नहीं हैं, हम सभी परिणाम झेलने को तैयार हैं। जो कुछ हो चुका है उससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। अब हमें अपनी मांगे मनवानी ही होंगी'। एमआईएम की आक्रामक और भड़काऊ राजनीति की जीतए दरअसल, सभी ' धर्मनिरपेक्षष् पार्टियों की हार है। ये पार्टियां न तो राज्य में कानून के शासन की रक्षा कर सकीं और ना ही राज्य का हिंदूकरण रोक सकीं। एमआईएम, दरअसल, मोदी की भाजपा की प्रतिकृति है। जिस तरह मोदी बहुसंख्यक समुदाय के युवकों  की महत्वाकांक्षाओं को भुना रहे हैं उसी तरह एमआईएम मुस्लिम युवकों की इच्छाओं.आकांक्षाओं से खेल रही है। एमआईएम मुस्लिम युवकों को 'मुस्लिम राजाओं के गौरवशाली इतिहास' के झूठे अहंकार से भर रही है। मीडिया हमें बताती है कि मोदी अब सांप्रदायिक एजेण्डे पर नहीं चल रहे हैं। उन्हें उसकी जरूरत भी नहीं है। लोग यह जान गए हैं कि उनका ब्रांड क्या है और योगी आदित्यनाथ व मोदी के अन्य चेले सांप्रदायिक और भड़काऊ बातें कहने में जरा भी नहीं सकुचाते। परंतु हम सब को समझ लेना चाहिए कि अंततः यह सांप्रदायिक प्रतियोगिता भारत के संवैधानिक प्रजातंत्र को ही निगल लेगी। जो लोग भारतीय संविधान,कानून के राज, उदारवादी मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, उनकी यह जिम्मेदारी है कि वे भारत के लोगों को यह समझाएं कि देश को आज एक स्वस्थ्य नागरिक आंदोलन की जरूरत है जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करे और जिसकी विविधता और बहुवाद में पूरी आस्था हो।
-इरफान इंजीनियर

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