हाल ;10 दिसंबर 2014 में आगरा में आयोजित एक कार्यक्रम में फुटपाथ पर रहने वाले और कचरा बीनने वाले लगभग 350 लोगों को मुसलमान से हिंदू बनाया गया। उनसे यह वायदा किया गया था कि यदि वे कार्यक्रम में भाग लेंगे तो उन्हें राशन कार्ड व बीपीएल कार्ड उपलब्ध करवाए जायेंगे। यह कार्यक्रम, आरएसएस से जुड़ी दो संस्थाओं . बजरंग दल और हिंदू जनजागृति समिति . द्वारा आयोजित किया गया था। इसे धर्मपरिवर्तन न कहकर घरवापसी बताया गया। इस कार्यक्रम को योगी आदित्यनाथ जैसे आरएसएस नेताओं द्वारा 'शानदार उपलब्धि' और आरएसएस की 'गौरवमयी सफलता' बताया जा रहा है। एक आरएसएस विचारक के अनुसार, धर्मपरिवर्तन पर प्रतिबंध की संघ की लंबे अरसे से चली आ रही मांग का धर्मनिरपेक्षतावादी और धार्मिक अल्पसंख्यक विरोध करते आ रहे हैं। इस धर्मपरिवर्तन ;नहीं घरवापसी से धर्मपरिवर्तन के खिलाफ कानून बनाए जाने के मुद्दे पर बहस फिर शुरू होगी। आरएसएस से जुड़े इस चिंतक का कहना है कि अगर आगरा के वेदनगर के 350 मुसलमानों को हिंदू बनाने के कार्यक्रम के पीछे संघ है, तो इससे यह साफ है कि संघ एक सुविचारित रणनीति के तहत काम कर रहा है।
इस चिंतक के अनुसार, आरएसएस का यह कदम चतुराईपूर्ण है क्योंकि इससे धर्मपरिवर्तन पर प्रतिबंध पर बहस शुरू हो गई है, जिसकी मांग वह कई दशकों से करता आ रहा है और जिसके लिए उसे आलोचना भी झेलना पड़ी है। यद्यपि सांप्रदायिक तत्व चिल्ला.चिल्लाकर कहते आ रहे हैं कि मीनाक्षीपुरम के धर्मपरिवर्तन के पीछे पेट्रोडालर थे और ईसाई मिशनरियां विदेशों से आ रहे धन का इस्तेमाल, आदिवासियों और दलितों को ईसाई बनाने के लिए कर रही हैं तथापि यह सच नहीं है। मीनाक्षीपुरम में धर्मपरिवर्तन के पीछे था ऊँची जातियों द्वारा दलितों का अपमान। जहां ईसाई मिशनरियों द्वारा जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन के आरोप लंबे समय से लगाए जा रहे हैं वहीं यह भी सच है कि अब तक एक भी ऐसा मामला सामने नहीं आया है जिसमें यह साबित हुआ है कि किसी को जबरदस्ती ईसाई बनाया गया था। यह सही है कि कुछ ईसाई पंथों के सदस्य दावा करते हैं कि वे धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं परंतु अधिकांश पंथों के धार्मिक नेताओं का यह कहना है कि धर्मपरिवर्तन तभी करवाया जाता है जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से ईसाई बनना चाहता है। दिलचस्प यह है कि इस मान्यता के बावजूद कि मिशनरियां बड़े पैमाने पर लोगों को ईसाई बना रही हैं, जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, देश की ईसाई आबादी में कमी आई है ;1971.2.60 प्रतिशत, 1982.2.44 प्रतिशत, 1991.2.34 प्रतिशतए 2001.2.30 प्रतिशत व 2011 में लगभग 2.20 प्रतिशत। पास्टर स्टेन्स को जिंदा जलाए जाने की घटना के बाद, तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री एल के आडवाणी द्वारा नियुक्त वाधवा जांच आयोग, इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पास्टर स्टेन्स धर्मपरिवर्तन नहीं करवा रहे थे और उड़ीसा के मनोहरपुर के क्योन्झार में ईसाईयों का आबादी में प्रतिशत लगभग स्थिर बना हुआ था। पास्टर स्टेन्स जिस दौरान वहां कार्यरत थे,उस अवधि में इलाके की ईसाई आबादी में बहुत थोड़ी सी वृद्धि हुई थी।
भारत में धर्मपरिवर्तन कैसे और क्यों हुआ? हम इस प्रश्न पर दो स्तरों पर विचार कर सकते हैं। जहां तक मध्यकालीन भारत का प्रश्न है, उस समय मुख्यतः जातिगत दमन के कारण लोग मुसलमान बने। जैसा कि स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, 'क्या कारण है कि भारत के गरीबों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है? यह कहना बकवास है कि उन्हें तलवार के जोर पर मुसलमान बनाया गया। वे तो जमींदारों और पुरोहितों से मुक्ति पाने के लिए मुसलमान बने" ;कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड.8, पृष्ठ 303। इनके अलावा,कुछ हिंदुओं ने इस्लाम इसलिए अपनाया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि इससे मुस्लिम शासक खुश होंगे और जागीर या ईनाम मिलेगा,कुछ ने डर के कारण और कुछ ने सामाजिक मेलजोल के चलते इस्लाम के प्रति आकर्षित होने के कारण उस धर्म को अपना लिया। इसके उदाहरण हैं मलाबार तट और मेवात के मुसलमान। मध्यकाल में इस्लाम में धर्मपरिवर्तन का मुख्य कारण था सूफी संतों का प्रभाव, जिनकी दरगाहों पर अछूतों के प्रवेश पर कोई प्रतिबंध नहीं था। चूंकि आज भी देश की कम से कम एक.चौथाई आबादी छुआछूत में विश्वास रखती है इसलिए आश्चर्य नहीं कि कुछ दमित जातियों के सदस्य,हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लेते हैं। याद रहे कि डॉक्टर आंबेडकर ने हिंदू धर्म का त्याग करने के पहले कहा था कि, 'मैं जन्म से हिंदू हूं। यह मेरे हाथ में नहीं था। परंतु मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा'। इसी तरहए यह प्रचार भी गलत है कि हिंदुओं के ईसाई बनने का सिलसिला देश में अंग्रेजों के आगमन के बाद शुरू हुआ। भारत में ईसाई धर्म,अंग्रेजों से बहुत पहले आ चुका था। कुछ लोग कहते हैं कि पहली सदी ईस्वी में सेंट थॉमस सबसे पहले भारत में ईसाई धर्म लाए तो कुछ अन्यों का कहना है कि यह धर्म भारत में पहली बार पांचवी सदी में आया। ईसाई मिशनरियां लंबे समय से उपेक्षित आदिवासी क्षेत्रों में काम करती रही हैं और गरीब आदिवासियों को शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाती आई हैं। इससे प्रभावित होकर भी कई आदिवासी और दलित ईसाई बने। लगभग छःह दशक पहले से, सांप्रदायिक ताकतों ने मिशनरियों के आदिवासी इलाकों में काम करने पर आपत्ति उठाना शुरू की और तबसे ही इन क्षेत्रो में हिंसा प्रारंभ हुई। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शहरों में बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरी स्कूल हैं जिनमें अपने बच्चों को दाखिल करनवाने के लिए समाज के सभी वर्गों के सदस्य आतुर रहते हैं। यह मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि कुछ मिशनरियां अपनी प्रार्थना सभाओं व रोग ठीक करने के दावों के जरिए धर्मपरिवर्तन करवा रही होंगीं। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि धोखाधड़ी या लालच से लोगों को ईसाई बनाने की घटनाएं न के बराबर होती हैं। ईसाई मिशनरियों पर अधिकतर हमले उस समय किए जाते हैं जब वे प्रार्थनासभाएं आयोजित करती हैं। विदेशों से जो पैसा मिशनरियों को मिलता है, वह कानूनी रास्ते से आता है और देश के कई एनजीओ व आरएसएस जैसे संगठनों को भी विदेशों से पैसा मिल रहा है।
दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन जो कर रहे हैं,वह धर्मपरिवर्तन नहीं बल्कि घरवापसी है?संघ परिवार के कई दावे केवल राजनैतिक फिकरेबाजियां हैं। भारत के जातिवादी समाज में स्वेच्छा से धर्मपरिवर्तन लंबे समय से होता आ रहा है। यह अलग बात है कि ईसाई और मुस्लिम समुदाय भी जातिवाद के वायरस से मुक्त नहीं रह पाए हैं परंतु प्रभुत्वशाली जातियों के दमन से मुक्ति और सामाजिक न्याय की चाह की धर्मपरिवर्तन में हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिकाएं रही है। आरएसएस का यह दावा अप्रासंगिक है कि वर्तमान भारत के अधिकांश मुसलमानों और ईसाईयों के पूर्वज हिंदू थे। आखिर इस बात का क्या महत्व है कि किसी व्यक्ति के पूर्वज किस धर्म को मानते थे?क्या हम अपने आज के विश्वासों और आस्थाओं का निर्धारण,अपने पूर्वजों की आस्थाओं और विश्वासों के आधार पर करेंगे? हम कितने पीछे तक जाएंगे? डार्विन के मानव के विकास के सिद्धांत को यदि हम छोड़ भी दें, तब भी ताजा डीएनए अध्ययन बताते हैं कि सबसे पहला मनुष्य,दक्षिण अफ्रीका में जन्मा था। इसी तरह, इस पर भी बहस जारी है कि आर्य भारत के निवासी थे या वे कहीं बाहर से यहां आए थे। लोकमान्य तिलक का कहना है कि आर्य उत्तर ध्रुव से भारत आए थे। तो क्या अब हम वह धर्म अपना लें जो आर्कटिक में रहने वाले आर्यों का था? या हम उन विश्वासों पर चलें जो लाखों साल पहले दक्षिण अफ्रीका में जन्में हमारे पूर्वजों के थे ?
घुमन्तू जातियों और मूर्तिपूजकों का क्या धर्म था? कुछ समाजवैज्ञानिक,पूरी दुनिया में मूलनिवासियों ;आदिवासियों की आस्थाओं और उनके रीतिरिवाजों को धर्म न कहकर 'देशीय संस्कृति' कहते हैं। चूंकि जाति व्यवस्था,भारत में धर्म का केंद्रीय तत्व रही है इसलिए दमित जातियों के सदस्य समय.समय पर हिंदू धर्म छोड़करए जैन, बौद्ध, ईसाई,इस्लाम व सिक्ख धर्म अपनाते रहे हैं। लोगों को जब हिंदू धर्म में असमानता का सामना करना पड़ता था तो उनमें से कई इस धर्म को छोड़कर अन्य धर्मों को अपना लेते थे। भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर भारतीय उपमहाद्वीप में बड़ी संख्या में लोग बौद्ध बने। यह अलग बात है कि बाद में ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान के कारण बौद्ध धर्म का इस देश से सफाया हो गया। कई लोगों को यह लगता था कि मिशनरियां उनके समुदाय की सेवा कर रही हैं और इसलिए वे अपना धर्म बदल लेते थे।
भारतए महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले स्वाधीनता आंदोलन के कारण अस्तित्व में आया। महात्मा गांधी ने सभी धर्मों के लोगों को एक करने में सफलता पाई क्योंकि वे सभी धर्मों को एक नजर से देखते थे। वे भारतीय और विदेशी धर्मों में कोई विभेद नहीं करते थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सांप्रदायिक तत्व उन्हें उद्वत कर धर्मपरिवर्तन का विरोध कर रहे हैं। इसके लिए वे उनके भाषणों, वक्तव्यों आदि के चुनिंदा और अधूरे हिस्सों का इस्तेमाल करते हैं। महात्मा गांधी के धर्मपरिवर्तन पर विचार, 22 मार्च 1931 को उनके द्वारा'द हिन्दू' अखबार को दिये गए एक साक्षात्कार ;कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड 106, पृष्ठ 27.28 से स्पष्ट हैं। उन्होंने कहा, 'अगर स्वशासित भारत में मिशनरियां,स्वास्थ्य व शिक्षा आदि की सुविधाएं प्रदान कर धर्मपरिवर्तन करवाती रहेंगी तो मैं निश्चित तौर पर उनसे यह कहूंगा कि वे भारत से चली जाएं। हर राष्ट्र का धर्म उतना ही अच्छा है जितना कि किसी और राष्ट्र का। निश्चित तौर पर,भारत के धर्म, उसके लोगों के लिए पर्याप्त हैं। हमें किसी आध्यात्मिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है'। यह उनके उद्वरण का पहला हिस्सा है। परंतु इसके बाद जो कुछ उन्होंने कहा, वह ठीक इसके विपरीत है और वही उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। गांधीजी ने आगे कहाए'ये वे बातें हैं जो अखबार के संवाददाता ने मेरे मुंह में डालीं...मैं तो सिर्फ इतना कह सकता हूं कि जो कुछ मैं कहता और मानता रहा हूं,यह उसके ठीक विपरीत है'। वे कहते हैंए'मैं धर्मपरिवर्तन के विरूद्ध नहीं हूं परंतु मैं उसके आधुनिक तरीकों के खिलाफ हूं। इन दिनों धर्मपरिवर्तन एक व्यवसाय बन गया है.....हर राष्ट्र अपने धर्म को उतना ही अच्छा मानता है,जितना कि किसी और राष्ट्र के धर्म को। निश्चित तौर पर भारतीय लोगों के धर्म उनके लिए काफी हैं। भारतीयों को अपना धर्म बदलने से कोई लाभ नहीं होगा'। और इसके बाद वे भारतीय धर्मों की सूची देते हैं,'ईसाई और यहूदी धर्म के अलावा, हिंदू धर्म और उसकी शाखाएं, इस्लाम और पारसी,भारत के जीवित धर्म हैं।'
जहां महात्मा गांधी साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष कर रहे थे, वहीं सम्प्रदायवादी 'दूसरे' समुदायों के विरूद्ध जहर उगल रहे थे। बीसवीं सदी की शुरूआत में ही, शुद्धि ;आर्य समाज और तंजीम ;तबलीगी जमात, उनके राजनैतिक एजेन्डे का हिस्सा बन चुके थे। चूंकि हिन्दू, पैगम्बर.आधारित धर्म नहीं है इसलिए उसमें धर्मपरिवर्तन की परिकल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत, सभी पैगम्बर.आधारित धर्म, अपने अनुयायिों से ईश्वर के संदेश को फैलाने की अपेक्षा करते हैं। इस समस्या से निपटने के लिए आर्य समाज ने एक नया शब्द गढ़ा,'शुद्धि' जो कि दरअसल, लोगों को जबरदस्ती हिन्दू बनाने का दूसरा नाम था। आरएसएस ने इसमें और सुधार करते हुए 'घर वापसी' शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया ताकि लोगों को जबरदस्ती हिन्दू बनाने के उसके अभियान को एक सम्मानजनक चोला पहनाया जा सके। संघ का यह दावा कि घरवापसी का उद्धेश्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाना है,इसलिए अर्थहीन है क्योंकि अल्पसंख्यकों ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में बढ़.चढ़कर हिस्सेदारी कर यह साबित कर दिया था कि वे पहले से ही राष्ट्र की मुख्यधारा में हैं। अलबत्ता, आरएसएस अवश्य स्वाधीनता संग्राम से दूर रहा था। इसी तरह यह दावा भी बेबुनियाद है कि आदिवासी हिन्दू हैं। दरअसल आदिवासी जीवात्मवादी व प्रकृतिपूजक हैं। वे अपने पूर्वजों और प्रकृति की जीवात्मा की आराधना करते हैं। दुनिया के सभी हिस्सों के आदिवासीजन इसी तरह के विश्वास रखते हैं और ऐसा ही आचरण करते हैं। यह हिन्दू धर्म के ठीक विपरीत है, जो गीता, राम और शंकराचार्य में आस्था रखता है।
मुख्य मुद्दा यह है कि संघ,भारतीय राष्ट्रवाद को मान्यता नहीं देता और हिन्दू राष्ट्रवाद का पैरोकार है। यही कारण है कि जहां अन्य धर्मपरिवर्तनों को वह 'जबरन' बताता है वहीं उसके द्वारा किए जा रहे जबरन धर्मपरिवर्तन को घरवापसी कहता है। भारत के राष्ट्र.राज्य के रूप में उभरने से देश में आए परिवर्तनों को स्वीकार करने की बजाए वह पशुपालक.सामंती समाज की वैचारिकी से चिपका हुआ है। हम जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन और किसी के द्वारा स्वेच्छा से कोई धर्म अपनाने के बीच विभेद कैसे करें? यदि कोई हिन्दू,बौद्ध, जैन या सिक्ख बन जाए तो संघ को इसमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि ये 'भारतीय' धर्म हैं। साम्प्रदायिक तत्वों को समस्या केवल इस्लाम और ईसाई धर्म से है। इस विभेद को स्वीकार्यता देने के लिए संघ परिवार ने धूर्ततापूर्वक भारतीय और विदेशी धर्मों की परिकल्पना प्रस्तुत की है। सच यह है कि धर्म मूलतः वैश्विक होते हैं और उन्हें राष्ट्र के दायरे में नहीं बांधा जा सकता।
संविधानसभा ने इस मुद्दे पर गहराई से विचार किया था और इसके बाद ही अपने धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार संविधान में शामिल किया गया। वर्तमान में जिस शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा हैए वह'धर्म परिवर्तन करवाना' है। क्या हमारे देश में अंबेडकर जैसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है जो स्वेच्छा से दूसरा धर्म अपनाना चाहते हैं? क्या जब हम यह कहते हैं कि किसी का धर्मपरिवर्तन करवाया जा रहा है,तो हम उस व्यक्ति के अंतःकरण पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहे होते हैं? क्या 'धर्म और अंतःकरण की स्वतंत्रता' में विश्वास करने वाले हमारे प्रजातांत्रिक समाज में किसी व्यक्ति को अपना धर्म चुनने का हक नहीं है?
आरएसएस,अलीगढ़ में क्रिसमस के दिन एक विशाल घरवापसी आयोजन करने जा रहा है। योगी आदित्यनाथ जैसे संघ परिवार के नायकों का कहना है कि जो लोग घर वापस आएंगे उन्हें उनके मूल गोत्र और जाति में प्रवेश दिया जाएगा। तो इस तरह यह न केवल समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने का प्रयास है वरन् जातिगत ढांचे को मजबूती देने का षड़यंत्र भी है। यही हिन्दू राष्ट्रवाद का असली एजेन्डा है।
क्या हमें धर्मपरिवर्तन पर कानूनी प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है? हमारे देश में पहले से ही ऐसे कानून हैं,जिनमें जबरदस्ती, धोखाधड़ी या लोभ.लालच से धर्मपरिवर्तन करवाने वालों के लिए सजा का प्रावधान है। जो हमें करना है वह यह है कि हम स्वैच्छिक और जबरन धर्मपरिवर्तन के बीच विभेद करेंगे। घरवापसी,जबरन धर्मपरिवर्तन का पर्यायवाची है। आज जरूरत इस बात की है कि धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जाए और जो लोग गैरकानूनी तरीकों से धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं, उन्हें सजा दिलवाई जाए। तथाकथित 'धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम'आमजनों को अंतःकरण की स्वतंत्रता देने के लिए नहीं बल्कि उसे समाप्त करने के लिए बनाए जा रहे हैं।
- राम पुनियानी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें