गुरुवार, 11 जुलाई 2013

साम्प्रदायिकता नई रणनीतियां


साम्प्रदायिक संगठन अक्सर यह प्रचार व दावा करते हैं कि चूंकि देश में कोई बड़ा दंगा नहीं हो रहा है इसलिए यहां शांति है। वे यह भी कहते हैं कि चूंकि शांति है इसलिए प्रस्तावित साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक या साम्प्रदायिक दंगों से निपटने के लिए किसी अन्य विशेष कानून की आवश्यकता नहीं है। बल्कि, उनके अनुसार, इस तरह का कानून, साम्प्रदायिक खाई को और गहरा करेगा और उन घावों को फिर से कुरेदेगा, जो धीरे.धीरे भर रहे हैं। 
यह सच है कि सन् 2002 के बाद से गुजरात जैसे दंगे देश में नहीं हुए हैं। परन्तु यही बात अहमदाबाद के 1969 के दंगे, जिसमें आधिकारिक अनुमानों के अनुसार 2000 लोग मारे गए थे, और 1970 में हुए इतने ही भयावह भिवण्डीए जलगांव, महाड़ दंगों के बारे में भी सच है। इन दंगों के बाद, लगभग 14 साल तकए देश में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ। सन् 1984 में दिल्ली, अहमदाबाद, भिवण्डी और मुम्बई में दंगे भड़क उठे। सन् 1980 के दशक में गोधराए मेरठ, मलियाना, मुरादाबाद, अलीगढ़, भागलपुर आदि में छोटे.बड़े दंगे हुए। इन दंगों की पृष्ठभूमि में था उच्चतम न्यायालय के शाहबानो मामले में निर्णय का विरोध और अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराकर उसके स्थान पर राममंदिर बनाने का आंदोलन। बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने के अभियान के नतीजे में उत्तर और पश्चिमी भारत के कई शहरों, जिनमें मुंबई, अहमदाबाद और सूरत शामिल हैंए में दंगे हुए।
हमारे देश में विभिन्न जातियों और समुदायों को उपलब्ध अवसरों और विकास के फलों में अपनी हिस्सेदारी का दावा करने के लिए जिस ढंग से उत्प्रेरित किया जाता हैए उससे बेशक यह नतीजा निकाला जा सकता है कि साम्प्रदायिक हिंसा चक्रीय और आवर्ती है। चक्र की अवधि कम.ज्यादा हो सकती है परन्तु हिंसा की तीव्रता में केवल बढ़ोत्तरी ही होती है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में देश में जो साम्प्रदायिक शांति है, वह एक तरह से तूफान के पहले की शांति है। यह महत्वपूर्ण है कि शांति के इस दौर में भी कम से कम आठ स्थानों पर दंगे हुए हैं, जिनमें उत्तरप्रदेश के कई नगर और महाराष्ट्र का धुले शामिल है। इस संदर्भ में यह भी कहा जा रहा है कि समाज का साम्प्रदायिकीकरण और धु्रवीकरण करने के लिएए साम्प्रदायिक संगठनों की दंगों पर निर्भरता कम होती जा रही है।
साम्प्रदायिक संगठन इस मिथक का भरपूर प्रचार करते हैं कि साम्प्रदायिक दंगे किसी भयावह घटनाक्रम की स्वभाविक जनप्रतिक्रिया होते हैं.वह घटना इन्दिरा गांधी या स्वामी लक्ष्मणानन्द की हत्या हो सकती है या साबरमती एक्सप्रेस के कोच में आगजनी। सच यह है कि साम्प्रदायिक हिंसा हमेशा जानते.बूझते भड़काई जाती है और इसका उद्देश्य पहले से तय लक्ष्यों को पाना होता है। पॉल ब्रास के अनुसार, स्वतंत्रता के बाद से देश के कुछ क्षेत्रों विशेषकर उत्तरी व पश्चिमी राज्यों में, एक ष्संस्थागत दंगा व्यवस्था अस्तित्व में आ गई है, जिसे चुनाव के समय या राजनैतिक आवश्यकता पड़ने परए सक्रिय किया जा सकता है। साम्प्रदायिक हिंसा कभी स्वस्फूर्त नहीं होती। एक दंगे के उत्पादन के लिएए ब्रास कहते हैं, कई काम करने होते हैं। इनमें शामिल हैं अफवाहें फैलाना, सूचनाओं का आदान.प्रदान, उत्तेजक भाषणबाजी, दंगाईयों की भर्ती और हिंसा शुरू करवाने के लिए पूर्व.नियोजित हरकत। दंगा कैसे शुरू किया जायेगा, इसकी बाकायदा रिहर्सलें होती हैं और उचित समय परए जब वातावरण हिंसा भड़काने के अनुकूल हो और रास्ते में कोई बड़ी बाधा न होए दंगे शुरू कर दिये जाते हैं। भारत में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने के पीछे उद्देश्य होता है साम्प्रदायिक पहचान को, भाषायी, लैंगिक व नस्लीय पहचानॉ की तुलना में, अधिक मजबूती देना। इस मामले में दो व्यक्तियों का एक ही व्यवसाय में होना या किसी एक क्लब का सदस्य होना या कलाप्रेमी होना महत्व नहीं रखता। महत्व रखता है सिर्फ उनका धर्म। साम्प्रदायिक दंगे इसलिए भी करवाये जाते हैं ताकि दमित, दलित और आदिवासी, इस तथ्य को नजरअंदाज कर, कि उनके साथ जाति.आधारित पदानुक्रम के चलते किस कदर भेदभाव किया जाता है, अपनी साम्प्रदायिक पहचान को गले लगा लें और उच्च जातियों के हित में काम करें।
साम्प्रदायिक हिंसा इसलिए भी किसी व्यक्ति की साम्प्रदायिक पहचान को उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण बना देती है क्योंकि उसे लगता है कि उसके धर्म के कारण उसे मौत के घाट उतारा जा सकता है। हिंसा के दौरान दूसरे का भय अपने सबसे उच्च स्तर पर रहता है। हमारे समुदाय का हर व्यक्ति हमें मित्र नजर आता है और दूसरे समुदाय का प्रत्येक व्यक्ति, शत्रु। यही कारण है कि दंगों के दौरान लोग अजनबियों की भी धार्मिक पहचान जानने के लिए व्यग्र रहते हैं। दंगों के खत्म हो जाने के बाद भी उनके दौरान जाग्रत हुई साम्प्रदायिक चेतना और भय का भाव खत्म नहीं होता। साम्प्रदायिक शक्तियां इस चेतना को अनवरत प्रचार और कई तरह के मिथक फैलाकर जिंदा रखती हैं। दूसरे समुदाय को खतरा बताया जाता है। इस तरहए साम्प्रदायिक हिंसा से साम्प्रदायिक पहचान मजबूत होती है और सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों में अपने समुदाय के व्यक्ति को प्राथमिकता देने और दूसरे समुदाय के व्यक्तियों के साथ भेदभाव करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इससे समाज बंट जाता है व साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद को वैधता मिलती है और धर्मनिरपेक्ष व समावेशी राष्ट्रवाद की परिकल्पना में लोगों का विश्वास घटता है। प्रजातंत्र और स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों में विश्वास में कमी आती है। इस तरह, साम्प्रदायिक दंगे समाज का साम्प्रदायिकीकरण करते हैं।
नई रणनीति
चूँकि पहले साम्प्रदायिक ताकतों के समर्थक इतनी बड़ी संख्या में नहीं थे कि वे बिना दंगों का सहारा लिए समाज की सोच को अपनी विचारधारा के अनुरूप बना सकें इसलिए पहले बड़े और भयावह दंगे करवाना आवश्यक होता था। पॉल ब्रास के शब्दों मेंए दंगों के उत्पादन से साम्प्रदायिक संगठनों को मीडिया के एक हिस्से में कवरेज मिलता था व वे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल रहते थे। दंगों और मीडिया.दोनों का इस्तेमाल समाज में साम्प्रदायिकता की जड़ें मजबूत करने के लिये किया जाता था। परन्तु हाल के कुछ वर्षों में, साम्प्रदायिक संगठनों ने एक नई रणनीति अपना ली है, जिसके तहत उन्हें समाज का साम्प्रदायिकीकरण करने के लिए बड़े पैमाने पर दंगे करवाना आवश्यक नहीं रह गया है। कहना ना होगा कि दंगे करवाने के अपने खतरे थे। कई बार मीडिया हिंसा के खिलाफ हो जाता था, कई बार अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन सामने आ जाते थे, कई बार उच्च न्यायपालिका सहित देश की अन्य संस्थाएं समस्याएं खड़ी करती थीं तो कई बार प्रधानमंत्री या अन्य उच्च राष्ट्रीय पदों पर काबिज होने के महत्वाकांक्षी नेता भी परेशानी का सबब बन जाते थे।
अब साम्प्रदायिक दंगें भड़काकर, कुछ समय के लिए अल्पसंख्यकों को आतंक के साए में रखने की बजाए, साम्प्रदायिक शक्तियां, इस्लामिक आंतकवाद के भेस मेंए हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों पर आतंकी हमले कर रही हैं और इस तरह समाज को लगातार आतंक के साये में जीने पर मजबूर कर रही हैं।
हिन्दुत्व की विचारधारा से प्रेरित आतंकवादियों के अस्तित्व का पहली बार पता तब चला जब 6 अप्रैल 2006 को बम बनाने के दौरान हुए विस्फोट में  बजरंग दल के दो कार्यकर्ता मारे गए। इनमें से एक का नाम राजकोंडवार था। पुलिस को जांच के दौरान उस स्थान से कुछ मस्जिदों के नक्शे और मुसलमानों के पारम्परिक परिधान भी मिले। बम धमाके में घायल राहुल पांडे ने पुलिस के समक्ष स्वीकार किया कि उसने और उसके साथियों ने पहले भी कई बम बनाए थे। जनवरी 2008 में तमिलनाडु के तेनकासी में आरएसएस के कार्यालय और बस स्टेण्ड के समीप बम रखने के आरोप में हिन्दू मुनानी के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। उनका मानना था कि बम लगाने के लिए स्वाभाविकतः मुस्लिम संगठनों को दोषी ठहराया जायेगा और इससे हिन्दू उनके खिलाफ भड़केंगे। 24 अगस्त 2008 को कानपुर में बम बनाते समय दो बजरंग दल कार्यकर्ता मारे गए। बजरंग दल का इरादा पूरे उत्तरप्रदेश में भारी बम विस्फोट करने का था।
सन् 2010 में 30 अप्रैल को आरएसएस से लंबे समय तक जुड़े रहे देवेन्द्र गुप्ता विष्णु प्रसाद और चन्द्रशेखर पाटीदार को अक्टूबर 2007 में अजमेर शरीफ में बम रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। ऐसा कहा जाता है कि इन्हीं लोगों ने हैदराबाद की मक्का मस्जिद में भी बम विस्फोट किया था जिसके सिलसिले में कई निर्दोष मुस्लिम युवकों को पुलिस ने हिरासत में लिया और उन्हें जमकर शारीरिक यंत्रणा दी गई। गोवा के मारमागोवा में 16 अक्टूबर 2009 को हुए विस्फोट में दो व्यक्ति मारे गए। एनआईए ने इस घटना में प्रशांत जावडेकर ;रत्नागिरी सारंग कुलकर्णी ;पुणे जयप्रकाश उर्फ अन्ना ;मेंगलोर व एक अन्य अज्ञात व्यक्ति को आरोपी बनाया। मालगोंडा पाटिल और योगेश नायक नामक दो व्यक्ति एक बोरी में विस्फोटक भरकर स्कूटर से ले जा रहे थे तभी उनमें विस्फोट हो गया। यह घटना तब हुई जब मारमागोवा में एक धार्मिक पर्व चल रहा था जिसमें बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक.स्वरूप नरकासुर के पुतले जलाए जाते हैं। पुलिस ने इस घटना के लिए सनातन संस्था  नामक दक्षिणपंथी हिन्दू संगठन को दोषी ठहराया। इस संगठन का मुख्यालय गोवा के पोंडा क्षेत्र में स्थित रामनाथी नगर था जो कि अपने मंदिरों के लिए जाना जाता है।
इसी तरहए सन् 2008 में सनातन संस्था के 6 सदस्यों को वाशी ;ठाणे में एक सभागार में बम रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। 30 अगस्त 2011 को ठाणे की सेशन्स अदालत ने सनातन संस्था के रमेश गडकरी और विक्रम भावे को बम रखने का दोषी पाया और उन्हें दस वर्ष के कारावास की अधिकतम सजा सुनाई। एनआईए के अधिकारियों ने इस संस्था के मुख्यालय पर अक्टूबर 2011 में छापा मारा। संस्था की गतिविधियों की जांच जारी है। इन दोनों घटनाओं में निशाने पर मुसलमान नहीं थे परन्तु विस्फोट करने वाले यह जानते थे कि घटनाओं का दोष मुस्लिम संगठनों पर मढ़ा जायेगा।
आईबी व एटीएस के एक हिस्से का साम्प्रदायिकीकरण
जहां एक ओर साम्प्रदायिक संगठनों ने आतंकवाद और बम विस्फोटों के जरिए मुसलमानों को खलनायक और दानव सिद्ध करने की कोशिश की वहीं उन्होंने सुरक्षाबलों में ऐसे लोगों की घुसपैठ करवाई जिनकी मानसिकता साम्प्रदायिक थी। ये लोग अपने पद व शक्तियों का दुरूपयोग कर निर्दोष मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार करते उन्हें सीमा पार से आया ऐसा आतंकवादी बताते जिसके निशाने पर नरेन्द्र मोदी या कोई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति या कोई सामरिक महत्व का स्थान था व मुठभेड़ के नाम पर उनकी हत्या कर देते। यह सिलसिला लम्बे समय से चल रहा था और चलता ही रहता यदि सोहराबुद्दीन के भाई ने भारी मुसीबतों को झेलते हुए लम्बी कानूनी लड़ाई न लड़ी होती। यह इस तथ्य के बावजूद कि इस घटना में शामिल व्यक्ति अत्यंत शक्तिशाली व प्रभावशाली थे और उनके हाथ बहुत लंबे थे। सोहराबुद्दीन की तरह ही इशरत जहां,जावेद शेख और दो अन्यों को, जिनमें से एक का नाम सादिक जमाल था, मौत के घाट उतार दिया गया था। इशरत जहां की हत्या की सीबीआई द्वारा की गई जांच में यह सामने आया कि उसमें गुजरात के पुलिस महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त पीपी पाण्डेय का हाथ था। फर्जी मुठभेड़ में आई.बी. के अधिकारी राजेन्द्र कुमार की क्या भूमिका थी,इसकी जांच जारी है। राजेन्द्र कुमार ने वे गुप्तचर सूचनाएं उपलब्ध करवाईं थीं जिनके आधार पर हत्या को मुठभेड़ साबित किया गया। राजेन्द्र कुमार ने ही कथित रूप से उन एके.47 बंदूकों का इंतजाम करवाया, जिन्हें इशरत जहां व अन्य मृतकों की लाशों के पास रख दिया गया। गुजरात के गृह मंत्री और नरेन्द्र मोदी के विश्वस्त अमित शाह को सोहराबुद्दीन,कौसर बानो और तुलसीराम प्रजापति की हत्या के मामले में गिरफ्तार किया गया।
निर्दोष मुसलमानों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या को पूरे देश में मीडिया के जरिए प्रचारित करवाया जाता। जो कुछ पुलिस कहती,मीडिया उसे सौ प्रतिशत सत्य मानकर निगल लेती। इस तरह की घटनाओं के मीडिया द्वारा बिना कोई संदेह व्यक्त किए कवरेज करने और इन घटनाओं पर टीवी में बहस मुबाहिसों के लंबे सिलसिलों के चलते, टीवी का एक आम दर्शक यह मानने पर मजबूर हो जाता कि सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं। नरेन्द्र मोदी और एलके आडवाणी जैसे नेतागण इसी बात को लगतार दोहराते रहते हैं। इस प्रकार, मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने के लिएए दंगें भड़काने की बजाए, उन पर आतंकवादी होने का लेबल चस्पा करना शुरू कर दिया गया। फर्जी मुठभेड़ों का एक और लाभ था। जो लोग कथितआतंकवादियों के निशाने पर बताये जाते थे, वे नायक के रूप में उभरते थे और उन्हंे लौहपुरूष बताया जाता था।
निष्कर्ष
साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा अब यह रणनीति अपनाई जा रही है कि गुप्तचर एजेंसियों और आतंकवाद निरोधक दस्तों के एक हिस्से और मीडिया कवरेज के सहारेए अल्पसंख्यकों को देश के लिए बड़े खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जाए। साम्प्रदायिक ताकतों ने अपनी विचारधारा से ओतप्रोत लोगों की घुसपैठ सुरक्षाबलों में करवाने में सफलता पा ली है। होता यह है कि आईबी का एक हिस्सा झूठी गुप्त सूचनाएं देता है और इन सूचनाओं पर तुरत.फुरत कार्यवाही करते हुए आतंकवादी निरोधक दस्ते, निर्दोष मुसलमानों काए उन्हें आतंकवादी बताकर,कत्ल कर देते हैं और यह दावा करते हैं कि उन्होंने देश को एक और आतंकी हमले से बचा लिया। उत्तरप्रदेश के निमेश आयोग ने ऐसे मुस्लिम युवकों की सूची तैयार की है जिन्हें धर्मनिरपेक्ष मायावती सरकार में आतंकवादी बताकर गिरफ्तार किया गया था। निमेश आयोग के अनुसारए खालिद मुजाहिद नामक एक युवक को भी बिना किसी सुबूत के गिरफ्तार किया गया था। बाद में पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गई। आम जनता के दिलो.दिमाग में फिरकापरस्ती का जहर इस हद तक भर दिया गया है कि आतंकवादी होने के आरोप में मुकदमों का सामना कर रहे मुस्लिम युवकों की पैरवी करने वाले वकीलों को उनके ही हम पेशा अदालतों के परिसरों में पीट रहे हैं और इस पर न तो समाज और ना ही न्यायपालिका अपेक्षित प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही है। कम से कम किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय ने अदालतों की परिसरों में हो रही इस तरह की घटनाओं पर आपत्ति दर्ज नहीं की है। कतील सिद्दीकी को यरवदा जेल में मार डाला गया क्योंकि उसकी गवाही से हिमायत बेग, जिसे जर्मन बेकरी धमाकों के सिलसिले में फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, निर्दोष साबित हो जाता। ऐसा लगता है कि नई रणनीति काम कर रही है परन्तु ऐसा कब तक होगा, कहना मुश्किल है। जो नागरिक प्रजातंत्र और उसकी संस्थाओं का सम्मान करते हैंए वे आखिर कब इस तरह की नंगी हिंसा के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करेंगे? इसके पहले कि भारत एक फासीवादी देश बन जाए, हम सबको इस तरह की क्रूरता और अन्याय के विरूद्ध उठ खड़ा होना चाहिए।
-इरफान इंजीनियर

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