साम्राज्यवादी शक्तियों ने वर्तमान समय में न केवल भारत बल्कि पूरे एशिया, दक्षिण एशिया, मध्य एशिया व अफ्रीका को अपने चंगुल में दबा रखा है और इन सभी राष्ट्रों में पूँजीवाद का दानव इंसानियत को शर्मसार करने वाले मजालिम ढाते हुए अपने मकसद को हासिल करने में लगातार जुटा हुआ है। एक-एक करके सारे देशों की प्राकृतिक सम्पदा एवं उनका खनिज खजाना लूटता चला जा रहा है।
लोकतंत्र की आड़ में अपना साम्राज्यवादी निजाम पूरे विश्व में स्थापित करने में बहुत तेजी के साथ साम्राज्यी शक्तियाँ लगी हुई हैं, उन्होंने अपने उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक बनने वाले विश्व के तमाम बड़े लीडरों को एक-एक करके ठिकाने लगा डाला है, चाहे सद्दाम हुसैन हों या कर्नल गद्दाफी चाहे महात्मा गांधी हों या इन्दिरा गांधी। भारत में साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपना पहला निशाना बनाया 79 वर्ष के महात्मा गांधी को। उनका कत्ल करने वाले हाथ तो नाथू राम गोड्से के थे परन्तु दिमाग साम्राज्यी शक्तियों व उनके एजेन्टों का था। कहा तो यह गया कि नाथूराम गोड्से भारत के खजाने से 50 करोड़ रूपया पाकिस्तान को देने के लिए राजी हो चुके महात्मा गाधी से नाराज था इसीलिए उसने उनकी हत्या कर दी, परन्तु यह बात सत्य नहीं है।
वास्तव में साम्राज्यी शक्तियों को शिकस्त देकर हिन्द महासागर से खदेड़ देने वाले वृद्ध व्यक्ति महात्मा गांधी को साम्राजवादी शक्तियों ने इसलिए मारा कि वह समाजवाद और गरीबों के पक्षधर तथा साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने ही असहयोग आन्दोलन के जरिए इन शक्तियों की आर्थिक कमर तोड़ कर उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। बाकी काम द्वितीय विश्वयुद्ध ने कर दिखाया था
गांधी की हत्या के बावजूद भारत में साम्राज्यी शक्तियाँ कई वर्षों तक अपने कदम जमा न सकीं और पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व व उनकी दूरदर्शिता के चलते भारत को आर्थिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक रूप से मजबूत एवं आत्मनिर्भर बनाने का ढांचा बना लिया गया। इस काम में पंडित नेहरू को सोवियत यूनियन से बहुमूल्य मदद प्राप्त हुई।
परन्तु पंडित नेहरू दो सुपर शक्तियों के बीच से अपना रास्ता निकालने के पक्षधर थे। अतः उन्होंने यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटू व मिश्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर के साथ मिलकर गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का एक समूह बनाया जिसमें सभी विकासशील देशों ने अपनी सहभागिता निभाई। साम्राज्यवादी शक्तियों को भला यह बात कहाँ कुबूल थी सो उन्होंने नेहरू को पड़ोसी राष्ट्र चीन से भिड़ाने की योजना बना डाली और तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा को मैदान में उतार नेहरू से चीन को लड़ाने की योजना पर अपना काम शुरू कर दिया। नतीजा साम्राज्यी शक्तियों की इच्छानुसार निकला और चीन ने भारत पर न केवल हमला कर दिया बल्कि डेढ़ लाख वर्ग मीटर जमीन पर कब्जा भी कर लिया।
पंडित जवाहर लाल नेहरू की विदेशी एवं सुरक्षा नीतियों का जमकर विरोध विपक्षी पार्टियों जिनका नेतृत्व आरएसएस की राजनैतिक जमात जनसंघ कर रहा था, ने करना शुरू कर दिया। इन सबसे परेशान पंडित नेहरू की हृदयाघात से मृत्यु हो गई और लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। अभी चीन के द्वारा दिए गए आघात से भारत सँभल भी न सका था कि साम्राज्यी शक्तियों के इशारे पर एक दूसरे पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
भारत के मित्र राष्ट्र ने साम्राज्यी शक्तियों की चालों में फँसते भारत को सहारा देने के लिए कदम बढ़ाए और ताशंकद में भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री व पाक राष्ट्रपति मिलिट्री शासक जनरल अय्यूब खां को बुलाकर वार्ता उपरान्त समझौता कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे हतोत्साहित साम्राज्यवादी शक्तियों ने भारत में मौजूद अपने सहयोगी राजनैतिक दलों से विरोध कराना शुरू कर दिया। योजना यहाँ तक बनाई गई कि लाल बहादुर शास्त्री का स्वागत दिल्ली एयरपोर्ट पर काले झण्डों से किया जाएगा। इन खबरों से लाल बहादुर शास्त्री को इतना सदमा पहँुचा कि जिंदा भारत न आ पाए, उनका पार्थिव शरीर भारत पहुँचा।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल पैदा कर साम्रज्यी शक्तियाँ प्रसन्न थीं कि अब कांग्रेस के पास नेहरू की समाजवादी नीतियों की गाड़ी आगे बढ़ाने वाला कोई लीडर नहीं बचा। इंदिरा गांधी अपने पिता पंडित नेहरू की उँगली पकड़ राजनीति का सबक सीख ही रही थीं, लेकिन शास्त्री जी की असामयिक मृत्यु के बाद भारत की सत्ता की डोर सँभालने वाली इंदिरा गाधी जिन्हें उस समय के निपुण राजनेता अटल बिहारी बाजपेयी ने गूँगी गुडि़या के खिताब से नवाजा था, ने अपने नेतृत्व एवं राजनैतिक योग्यता के ऐसे जौहर दिखलाए कि उन्हीं अटल बिहारी बाजपेयी को एक दिन उन्हें दुर्गा का अवतार कहना पड़ा।
इंदिरा गांधी के दौर में भारत के कदम तेजी के साथ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने लगे। उनकी तेजी से परेशान साम्राज्यी शक्तियों ने उपमहाद्वीप में अपने सबसे चहीते एजेन्ट पाकिस्तान का इस्तेमाल फिर भारत के विरुद्ध किया। उन्होंने पहले तो उस पाकिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी जिसका असर दो कौमी विचाराधारा पर हुआ और लाखों की तादाद में बंगलादेशी पाक सेना के जुल्म से असुरक्षित होकर भारत में घुसने लगे। इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी का समर्थन किया बदले में पाकिस्तान ने इंदिरा गांधी के दौर में भारत के कदम तेजी के साथ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने लगे। उनकी तेजी से परेशान साम्राज्यी शक्तियों ने उपमहाद्वीप में अपने सबसे चहीते एजेन्ट पाकिस्तान का इस्तेमाल फिर भारत के विरुद्ध किया। उन्होंने पहले तो उस पाकिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी जिसका असर दो कौमी विचाराधारा पर हुआ और लाखों की तादाद में बंगलादेशी पाक सेना के जुल्म से असुरक्षित होकर भारत में घुसने लगे। इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी का समर्थन किया बदले में पाकिस्तान ने अपना तीसरा हमला भारत पर कर दिया परन्तु इस बार पाकिस्तान को इंदिरा गांधी ने सबक सिखाने वाली शिकस्त देकर उसकी ईंट से ईंट बजा डाली, पाक सेना के 90 हजार फौजी बंदी बनाए गए, कई सौ किमी0 जमीन भी भारत के कब्जे में आ गई, परन्तु पाकिस्तान में तख्ता पलट होने के बाद सत्ता में आए जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला में इंदिरा गांधी से संधि करके न केवल नियंत्रण रेखा स्थापित की बल्कि भारत से वह अपने युद्ध बंदी फौजी व कब्जा हुआ इलाका भी वापस ले जाने में सफल रहे।
-तारिक खान
लोकतंत्र की आड़ में अपना साम्राज्यवादी निजाम पूरे विश्व में स्थापित करने में बहुत तेजी के साथ साम्राज्यी शक्तियाँ लगी हुई हैं, उन्होंने अपने उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक बनने वाले विश्व के तमाम बड़े लीडरों को एक-एक करके ठिकाने लगा डाला है, चाहे सद्दाम हुसैन हों या कर्नल गद्दाफी चाहे महात्मा गांधी हों या इन्दिरा गांधी। भारत में साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपना पहला निशाना बनाया 79 वर्ष के महात्मा गांधी को। उनका कत्ल करने वाले हाथ तो नाथू राम गोड्से के थे परन्तु दिमाग साम्राज्यी शक्तियों व उनके एजेन्टों का था। कहा तो यह गया कि नाथूराम गोड्से भारत के खजाने से 50 करोड़ रूपया पाकिस्तान को देने के लिए राजी हो चुके महात्मा गाधी से नाराज था इसीलिए उसने उनकी हत्या कर दी, परन्तु यह बात सत्य नहीं है।
वास्तव में साम्राज्यी शक्तियों को शिकस्त देकर हिन्द महासागर से खदेड़ देने वाले वृद्ध व्यक्ति महात्मा गांधी को साम्राजवादी शक्तियों ने इसलिए मारा कि वह समाजवाद और गरीबों के पक्षधर तथा साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने ही असहयोग आन्दोलन के जरिए इन शक्तियों की आर्थिक कमर तोड़ कर उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। बाकी काम द्वितीय विश्वयुद्ध ने कर दिखाया था
गांधी की हत्या के बावजूद भारत में साम्राज्यी शक्तियाँ कई वर्षों तक अपने कदम जमा न सकीं और पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व व उनकी दूरदर्शिता के चलते भारत को आर्थिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक रूप से मजबूत एवं आत्मनिर्भर बनाने का ढांचा बना लिया गया। इस काम में पंडित नेहरू को सोवियत यूनियन से बहुमूल्य मदद प्राप्त हुई।
परन्तु पंडित नेहरू दो सुपर शक्तियों के बीच से अपना रास्ता निकालने के पक्षधर थे। अतः उन्होंने यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटू व मिश्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर के साथ मिलकर गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का एक समूह बनाया जिसमें सभी विकासशील देशों ने अपनी सहभागिता निभाई। साम्राज्यवादी शक्तियों को भला यह बात कहाँ कुबूल थी सो उन्होंने नेहरू को पड़ोसी राष्ट्र चीन से भिड़ाने की योजना बना डाली और तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा को मैदान में उतार नेहरू से चीन को लड़ाने की योजना पर अपना काम शुरू कर दिया। नतीजा साम्राज्यी शक्तियों की इच्छानुसार निकला और चीन ने भारत पर न केवल हमला कर दिया बल्कि डेढ़ लाख वर्ग मीटर जमीन पर कब्जा भी कर लिया।
पंडित जवाहर लाल नेहरू की विदेशी एवं सुरक्षा नीतियों का जमकर विरोध विपक्षी पार्टियों जिनका नेतृत्व आरएसएस की राजनैतिक जमात जनसंघ कर रहा था, ने करना शुरू कर दिया। इन सबसे परेशान पंडित नेहरू की हृदयाघात से मृत्यु हो गई और लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। अभी चीन के द्वारा दिए गए आघात से भारत सँभल भी न सका था कि साम्राज्यी शक्तियों के इशारे पर एक दूसरे पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
भारत के मित्र राष्ट्र ने साम्राज्यी शक्तियों की चालों में फँसते भारत को सहारा देने के लिए कदम बढ़ाए और ताशंकद में भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री व पाक राष्ट्रपति मिलिट्री शासक जनरल अय्यूब खां को बुलाकर वार्ता उपरान्त समझौता कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इससे हतोत्साहित साम्राज्यवादी शक्तियों ने भारत में मौजूद अपने सहयोगी राजनैतिक दलों से विरोध कराना शुरू कर दिया। योजना यहाँ तक बनाई गई कि लाल बहादुर शास्त्री का स्वागत दिल्ली एयरपोर्ट पर काले झण्डों से किया जाएगा। इन खबरों से लाल बहादुर शास्त्री को इतना सदमा पहँुचा कि जिंदा भारत न आ पाए, उनका पार्थिव शरीर भारत पहुँचा।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल पैदा कर साम्रज्यी शक्तियाँ प्रसन्न थीं कि अब कांग्रेस के पास नेहरू की समाजवादी नीतियों की गाड़ी आगे बढ़ाने वाला कोई लीडर नहीं बचा। इंदिरा गांधी अपने पिता पंडित नेहरू की उँगली पकड़ राजनीति का सबक सीख ही रही थीं, लेकिन शास्त्री जी की असामयिक मृत्यु के बाद भारत की सत्ता की डोर सँभालने वाली इंदिरा गाधी जिन्हें उस समय के निपुण राजनेता अटल बिहारी बाजपेयी ने गूँगी गुडि़या के खिताब से नवाजा था, ने अपने नेतृत्व एवं राजनैतिक योग्यता के ऐसे जौहर दिखलाए कि उन्हीं अटल बिहारी बाजपेयी को एक दिन उन्हें दुर्गा का अवतार कहना पड़ा।
इंदिरा गांधी के दौर में भारत के कदम तेजी के साथ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने लगे। उनकी तेजी से परेशान साम्राज्यी शक्तियों ने उपमहाद्वीप में अपने सबसे चहीते एजेन्ट पाकिस्तान का इस्तेमाल फिर भारत के विरुद्ध किया। उन्होंने पहले तो उस पाकिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी जिसका असर दो कौमी विचाराधारा पर हुआ और लाखों की तादाद में बंगलादेशी पाक सेना के जुल्म से असुरक्षित होकर भारत में घुसने लगे। इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी का समर्थन किया बदले में पाकिस्तान ने इंदिरा गांधी के दौर में भारत के कदम तेजी के साथ आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने लगे। उनकी तेजी से परेशान साम्राज्यी शक्तियों ने उपमहाद्वीप में अपने सबसे चहीते एजेन्ट पाकिस्तान का इस्तेमाल फिर भारत के विरुद्ध किया। उन्होंने पहले तो उस पाकिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी जिसका असर दो कौमी विचाराधारा पर हुआ और लाखों की तादाद में बंगलादेशी पाक सेना के जुल्म से असुरक्षित होकर भारत में घुसने लगे। इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी का समर्थन किया बदले में पाकिस्तान ने अपना तीसरा हमला भारत पर कर दिया परन्तु इस बार पाकिस्तान को इंदिरा गांधी ने सबक सिखाने वाली शिकस्त देकर उसकी ईंट से ईंट बजा डाली, पाक सेना के 90 हजार फौजी बंदी बनाए गए, कई सौ किमी0 जमीन भी भारत के कब्जे में आ गई, परन्तु पाकिस्तान में तख्ता पलट होने के बाद सत्ता में आए जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला में इंदिरा गांधी से संधि करके न केवल नियंत्रण रेखा स्थापित की बल्कि भारत से वह अपने युद्ध बंदी फौजी व कब्जा हुआ इलाका भी वापस ले जाने में सफल रहे।
-तारिक खान
क्रमस :
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
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